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________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । १०३ सो मनवचनकायकी क्रिया से उत्पन्न होता है । [वन्धः भावनिमित्तः] ग्रहण तो योगोंसे होता है और बन्ध एक अशुद्धोपयोगरूप भावोंके निमित्तसे होता है. और [भावः ] वह भाव जो है सो कैसा है कि [ रतिरागमोहयुक्तः ] इष्ट अनिष्ट पदार्थों में रति रागद्वेपमोह करकें संयुक्त होता है । I भावार्थ – जीवोंके प्रदेशों में कर्मोंका आगमन तो योगपरिणति से होता है. पूर्वकी बन्धीहुई कर्मवर्गणावोंका अवलंबन पाकर आत्मप्रदेशोंका प्रकंपन होना उसका नाम योगपरिणति है | और विशेषतया निज शक्ति के परिणामसे जीव के प्रदेशों में पुद्गलकर्मपिंडों का रहना उसका नाम बन्ध है । वह बन्ध मोहनीयकर्मसंजनित अशुद्धोपयोगरूप भावके विना जीवके कदाचित् नहिं होता । यद्यपि योगोंके द्वारा भी बन्ध होता है तथापि स्थिति अनुभागके बिना उसका नाममात्र ही ग्रहण होता है. क्योंकि बन्ध उसहीका नाम है जो स्थिति अनुभागकी विशेषतालिये हो, इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि वन्धको बहिरंग कारण तो योग है और अन्तरंग कारण जीवके रागादिक भाव हैं । आगे द्रव्य मिथ्यात्वादिक बन्धके बहिरंग कारण हैं ऐसा कथन करते हैं । हेदू चदुव्वियप्पो अवियप्पस कारणं भणिदं । तेसि पिय रागादी सिमभावे ण वज्झति ॥ १४९ ॥ संस्कृतछाया. हेतुश्चतुर्विकल्पोऽष्टविकल्पस्य कारणं भणितम् । तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते ॥ १४९ ॥ पदार्थ – [ चतुर्विकल्पः] चार प्रकारका द्रव्यप्रत्यय रूप जो [ हेतुः ] कारण है सो [अष्टदिकल्पस्य ] आठप्रकारके कर्मोंका [ कारणं ] निमित्त [ भणितं ] कहा गया है [च] और [तेषां अपि ] उन चार प्रकारके द्रव्यप्रत्ययोंका भी कारण [ रागादयः ] रागादिक विभाव भाव हैं [तेषां ] उन रागादिक विभावरूपभावोंके [ अभावे ] विनाश होनेपर [न बध्यन्ते] कर्म नहिं बंधते हैं । भावार्थ - आठप्रकार कर्मवन्धके कारण मिथ्यात्व असंयम कषाय और योग ये चार प्रकारके द्रव्यप्रत्यय हैं। उन द्रव्यप्रत्ययोंके कारण रागादिक भाव हैं अतएव बन्धके कारण के कारण रागादिक भाव हैं क्योंकि रागादिक भावोंके अभाव होनेसे द्रव्यमिध्यात्व असंयम कषाय और योग इन चार प्रत्ययोंके होते संते भी जीवके बन्ध नहिं होता. इस कारण रागादिक भाव ही वन्धके अन्तरंग मुख्यकारण हैं गौणकारण चारित्रप्रत्यय है । इसप्रकार बन्धपदार्थका व्याख्यान पूर्ण हुवा | अब मोक्षपदार्थका व्याख्यान किया जाता है सो प्रथम ही द्रव्यमोक्षका कारण परमसंवररूप मोक्षका स्वरूप कहते हैं 1
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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