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________________ श्री पञ्चास्तिकायसमयसारः । १२१ प्रकारकी वृद्धि करता है बहुत द्रव्यश्रुतके पठनपाठनादि संस्कारसे नानाप्रकारके विकल्प जालोंसे कलंकित अन्तरंगवृत्तिको धारण करते हैं. अनेकप्रकार यतिका द्रव्यलिंग, जिन बहिरंगत्रत तपस्यादिक कर्मकांडोंके द्वारा होता है उनका ही अवलंबन कर खरूपसे भ्रष्ट हुवा है दर्शनमोहके उदयसे व्यवहार धर्मरागके अंशकर किस ही काल पुण्यक्रियामें रुचि करता है किस ही काल में दयावन्त होता है किस ही काल में अनेक विकल्पोंको उपजाता है किसी कालमें कुछ आचरण करता है किसही काल दर्शनके आचरण निमित्त समताभाव धरता है. किस ही कालमें प्रगटदशाको धरता है । किसही काल धर्ममें अस्तित्वभावको धारण करता है शुभोपयोग प्रवृत्तिसे शंका कांक्षा विचिकित्सा मूढदृष्टि आदिक भावोंके उत्थापन निमित्त सावधान होकर प्रवर्त्ते है । केवल व्यवहारनय रूप ही उपबृंहण स्थितिकरण वात्सल्य प्रभाव - नांगादि अंगों की भावना भाव है. वारंवार उत्साहको बढाता है ज्ञानभावना के निमित्त पठन पाठनका काल विचारता रहै है. बहुत प्रकार विनयमें प्रवर्त्ते है. शास्त्रकी भक्तिके निमित्त बहुत आरंभ भी करता है. भले प्रकार शास्त्रका मान करता है गुरु आदिकमें उपकार प्रवृत्तिको मुकुरते नहीं. अर्थ अक्षर और अर्थअक्षरकी एक कालमें एकताकी शुद्धतामें सावधान रहता है. चारित्र के धारण करनेकेलिये हिंसा 'असत्य चौरी स्त्रीसेवन परिग्रह इन पांच अधर्मोंका जो सर्वथा त्यागरूप पंचमहाव्रत हैं तिनमें थिरवृत्तिको करता है । मनवचनकायका निरोध है जिनमें ऐसी तीन गुप्तियोंकर निरन्तर योगावलंबन करता हैं. ईर्या भाषा एपणा आदाननिक्षेपण उत्सर्ग जो पांच समिति हैं उनमें सर्वथा प्रयत्न करता है. तप आचरणके निमित्त अनसन अवमोदर्य वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेश इन छह प्रकार बाह्य तपमें निरन्तर उत्साह करे है. प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्त व्युत्सर्ग स्वाध्याय ध्यान इन छह प्रकारके अन्तरंग तपकेलिये चित्तको वश करे है. वीर्याचारके निमित्त कर्मकांड में अपनी सर्वशक्तिसे प्रवर्तें है । कर्मचेतनाकी प्रधानता से सर्वथा निवारी है अशुभकर्मकी प्रवृत्ति जिन्होंने, वे ही शुभकर्मकी प्रवृत्तिको अंगीकार फरते हैं. समस्त क्रियाकांडके आडंबर से गर्भित ऐसे जे जीव हैं ते ज्ञानदर्शनचारित्र - रूपगर्भित ज्ञान चेतनाको किसही कालमें भी नहिं पाते. बहुत पुण्याचरणके भारसे गर्भित चित्तवृत्तिको धरते हैं ऐसे जे केवल व्यवहाराबलंबी मिध्यादृष्टि जीव स्वर्गलोकादिक क्लेशोंकी प्राप्तिकी परंपरायको अनुभव करते हुये परमकलाके अभाव से बहुतकालपर्यन्त संसारमें परिभ्रमण करेंगे । सो कहा भी है. उक्तं च-गाथा "चरणकरणप्पाणा सुसमयपरमत्थ मुकवावारा । चरणकरणस्स सारं णिच्चयसुद्धं ण याणंति" ।। १ ॥ और जो जीव केवल निश्चयनयके ही अवलंबी हैं वे व्यवहाररूप स्वराजी
SR No.010451
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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