SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . पुरातन-जैनवाक्य-सूची सर्वज्ञोंकी परीक्षा, सर्वज्ञ-प्रणीत सागार तथा अनागार (गृहस्थ तथा मुनि) धर्मका संक्षिप्त स्वरूप और उसका फल-जैसे विषयोंका सामान्यतः वर्णन है । धर्मपरीक्षाको आवश्यकताको जिन गाथाओ-द्वारा व्यक्त किया गया है उनमेसे चार गाथाएँ नमूने के तौरपर इस प्रकार हैं खीराइं जहा लोए सरिसाई हवंति वरण-णामेण । रसभेएण य ताई वि णाणागुण-दोस-जुत्ताई ॥६॥ काई वि खीराई जए हवंति दुक्खावहाणि जीवाणं । काई वि तुहि-पुर्टि करंति वरवण्णमारोग्गं ॥ १० ॥ धम्मा य तहा लाए अणयभेया हवंति णायव्वा । णामेण समा सव्ये गुणेण पुण उत्तमा केई ॥ ११ ॥ तम्हा हु सव्व धम्मा परिक्खियव्या गरेण कुसलेण । सो धम्मो गहियो जो दोसेहिं विवज्जित्रो विमलो ॥१४॥ इनमे बतलाया है कि जिस प्रकार लोकमे विविध प्रकारके दूध वर्ण और नामको दृष्टिसे समान होते हैं, परन्तु रसके भेदसे वे नाना प्रकारके गुण-दोषोंसे युक्त रहते हैं। कोई दूध तो उनमेंसे जीवोंको दुखकारी होते हैं और कोई दूध तुष्टि-पुष्टि तथा उत्तम वर्ण और आरोग्य प्रदान करते हैं। उसी प्रकार धर्म भी लोकमे अनेक प्रकारके होते हैं, धर्मनामसे सब समान हैं, परन्तु गुणकी अपेक्षा कोई उत्तम होते हैं, और कोई दुःखमूलकादि दूसरे प्रकारके । अतः कुशल मनुष्यको चाहिये कि सभी धर्मों की परीक्षा करके उस धर्मको ग्रहण करे जो दोपोंसे विवर्जित निर्मल हो।' (इसके अनन्तर लिखा है कि जिस धर्ममे जीवोंका वध, असत्यभाषण, परद्रव्यहरण, परस्त्रीसेवन, सन्तोषरहित बहुआरम्भ-परिग्रह-ग्रहण, पंच उदम्बर फल तथा मधुमांसका भक्षण, दम्भधारण और मदिरापान विधेय है वह धर्म भी यदि धर्म है,तो फिर अधर्म अथवा पाप कैसा होगा ? और ऐसे धर्मसे यदि स्वर्ग मिलता है तो फिर नरक कौनसे कम से जाना होगा ? अर्थात् जीवोंका वधादिक ही अधर्म है-पाप कर्म है और वैसे कर्मों का फल ही नरक है।) इस अथके कर्ता पद्मनन्दिमुनि हैं परन्तु अनेकानेक पद्मनन्दि-मुनियोंमेंसे ये पद्मनन्दि कौनसे हैं, इसकी प्रथपरसे कोई उपलब्धि नहीं होती; क्योंकि ग्रंथकारने अपने तथा अपने गुरु-आदिके विषयमे कुछ भी नहीं लिखा है । इस गुरु-नामादिके उल्लेखाऽभाव और भापासाहित्यकी दृष्टिमे यह अथ उन पद्मनन्दि आचार्यकी तो कृति मालूम नहीं होता जो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिके कर्ता हैं। ४०. गोम्मटसार और नेमिचन्द्र गोम्मटसार' जैनसमाजका एक बहुत ही सुप्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रंथ है, जो जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड नामके दो बड़े विभागोंमे विभक्त है और वे विभाग एक प्रकारसे अलग-अलग ग्रथ भी समझे जाते हैं, अलग-अलग मुद्रित भी हुए हैं और इसीसे वाक्यसूचीमे उनके नामको (गो०जी०, गो.क० रूपसे) स्पष्ट सूचना साथम करदी गई है। जीवकाण्डकी अधिकार-सख्या २२ तथा गाथा-सख्या ७३३ है और कर्मकाण्ड की अधिकार-संख्या ६ तथा गाथा-संख्या ६७२ पाई जाती है। इस समूचे ग्रंथका दूसरा नाम 'पञ्चसग्रह' है, जिस टाकाकारोने अपनी टाकाओंमे व्यक्त किया है। यद्यपि यह प्रथ प्रायः संग्रहाथ है, जिसमे शब्द ओर अर्थ दोनों दृष्टियोसे सैद्धान्तिक विषयोका समई किया गया है, परन्तु विषयके संकलनादिकमे यह अपनी खास विशेषता रखता है और
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy