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________________ प्रकाशकीय वक्तव्य इस 'पुरातन-जैन-वाक्य-सूची' को प्रेसकी हवा खाते-खाते छह वर्षसे ऊपर समय वीत गया । सन् १९४३ मे जब यह अथ श्रीवास्तव-प्रेसमें छपनेको दिया गया तब इसके ३-४ महीनेमे ही छपकर प्रकाशित होजानेकी आशा की गई थी और तदनुसार 'अनेकान्त' मासिकमे सूचना भी करदी गई थी, परन्तु प्रेसने अपने वचनों एवं आश्वासनोंके विरुद्ध कुछ ही समय बाद इतना मन्दगतिसे काम किया और कभी-कभी सप्ताहोतक छपाईका काम बन्द भी कर दिया कि उससे प्रस्तावनादि लिखनेका जो उत्साह था वह सब मन्द पड गया । और इसलिये कोई एक वर्ष बाद जब प्रथके छपनेकी सूचना अनेकान्त' मे निकाली गई तब यह लिखना पडा कि प्रयकी प्रस्तावना और कुछ परिशिष्टोंका छपना आदि कार्य अभी बाकी है। उस समय यह सोचा गया था कि अवशिष्ट कार्य प्रायः दो महीनेमें पूरा होकर प्रथ अब जल्दी ही प्रकाशमें आजाएगा और इसीसे ग्रथका मूल्य निर्धारित करके उसके ग्राहक बननेकी भी प्रेरणा करदी ।ई थी, जिसके फलस्वरूप कितने ही ग्राहकोके नाम दर्जरजिस्टर हुए और कुछसे मूल्य भी प्राप्त होगया। इधर परिशिष्टोंका निर्माण होकर छपनेका कुछ कार्य प्रारम्भ हुआ और उधर सरकारकी तरफसे कागजके कंट्रोल आदिका आर्डर जारी होकर ग्रन्योंके छपनेपर खासा प्रतिबन्ध लगा दिया गया। उस समय अपना कितना ही काराज ग्रयोंकी छपाई के लिए देहलीके एक प्रेसमें रक्खा हुआ था, जब सरकारको पोरसे यह स्पष्ट होगया कि जिन ग्रंथोंके आर्डर प्रेसोको पहलेसे दिये हुए हैं उनपर उक्त कट्रोल आर्डर लागू नहीं होगा-वे कागजके उपयोगसन्बन्धी कोटेका कोई खयाल न रखते हुए भी अवधिके भीतर छपाये जा सकेंगे, तब यही मुनासिब और पहला काम समझा गया कि उस कागजपर अपने उन ग्रंथोंको छपालिया जाय जिनके लिये वह कागज़ रिजर्व रक्खा हुआ है । तदनुसार इधरका काम छोड देहली जाकर उन ग्रन्थों में जो कार्य शेष था उसे यथासाध्य प्रस्तावनादि के साथ पूरा करते हुए उनका छपाना प्रारम्भ किया गया, जिसमें १।। सालके करीब समय निकल गया । इसी बीचमे वीर-शासन जयन्ती-सम्बन्धी राजगृह तथा कलकत्तेके महोत्सव भी हो गये, जिनमें भी शक्तिका कितना ही व्यय करना पड़ा है। ___ इसके सिवाय 'अनेकान्त' पत्रको बरावर चालू रक्खा गया है और उसमें समयकी आवश्यकता तथा उपयोगिताको ध्यानमें रखते हुए कितने ही महत्वके आवश्यक लेखोको समयपर लिखने तथा लिखानेमे प्रवृत्त होना पड़ा है। दूसरे, स्वास्थ्यने भी ठीक साथ नहीं दिया, वह अनेक वार गडबडमें ही चलता रहा है और कभी-कभी तो किसी दुःस्वप्नादिके कारण ऐसा भी महसूस होने लगा था कि शायद जीवन अब जल्दी ही समाप्त होजाय और इससे तदनुरूप कुछ चिन्ताओंने भी आ घेरा था। तीसरे, स्याद्वादमहाविद्यालय काशीके प्रधान अध्यापक पं० श्री कैलाशचन्दजी शास्त्रीकी तथा और भी कुछ विद्वानोंकी ऐसी इच्छा जान पड़ी कि यदि प्रस्तावनामें इन प्राकृत ग्रथों और इनके रचयिताओका कुछ परिचय मुख्तार सा० की (मेरी)
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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