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________________ प्रस्तावना १ प्रवचनसार, २ समयसार, ३ पंचास्तिकाय-ये तीनो ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रंथोमे प्रधान स्थान रखते हैं, बड़े ही महत्वपूर्ण हैं और अखिल जैनसमाजमे समानआदरकी दृष्टिसे देखे जाते हैं। पहलेका विषय ज्ञान, ज्ञेय और चारित्ररूप तत्व-त्रयके विभागसे तीन अधिकारोंमे विभक्त है, दूसरेका विषय शुद्ध आत्मतत्त्व है और तीसरेका विषय कालद्रव्यसे भिन्न जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश नामके पॉच द्रव्योंका सविशेष-रूपसे वर्णन है। प्रत्येक ग्रंथ अपने-अपने विषयमे बहत ही महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक है। हरएक का यथेष्ट परिचय उस-उस प्रथको स्वयं देखनेसे ही सम्बन्ध रखता है। इनपर अमतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्यकी खास संस्कृत टीकाएँ हैं, तथा बालचन्द्रदेवकी कन्नड टीकाएँ भी है, और भी दूसरी कुछ टीकाएँ प्रभाचन्द्रादिकी सस्कृत तथा हिन्दी आदिकी उपलब्ध है। अमतचंद्राचार्यकी टीकानुसार प्रवचनसार मे २७५, समयसारमे ४१५ और पंचास्तिकायमे १७१ गाथाएँ है, जब कि जयसेनाचार्यकी टीकाके पाठानुसार इन ग्रंथोंमे गाथाओंकी संख्या क्रमशः ३११, ४३६ १८१ है । इन बढ़ी हुई गाथाओकी सूचना सूचीमे टीकाकारके नामके संकेत (ज०) द्वारा की गई है। संक्षेपमे, जैनधर्मका मर्म अथवा उसके तत्त्वज्ञानको समझने के लिये ये तीनों ग्रंथ बहुत ही उपयोगी हैं। ४. नियमसार-कुन्दकुन्दका यह अथ भी महत्त्वपूर्ण है और अध्यात्म-विषयको लिये हुए है। इसमे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको नियम-नियमसे किया जानेवाला कार्य-एवं मोक्षोपाय बतलाया है और मोक्षके उपायभूत सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप कथन करते हुए उनके अनुष्ठानका तथा उनके विपरीत मिथ्यादर्शनादिके त्यागका विधान किया है और इसीको (जीवनका) सार निर्दिष्ट किया है । इस प्रथपर एकमात्र संस्कृत टीका पद्मप्रभ-मलधारिदेवकी उपलब्ध है और उसके अनुसार ग्रंथकी गाथा-सख्या १८७ है । टीकामे मूलको द्वादश अ तस्कन्धरूप जो १२ अधिकारोंमें विभक्त किया है वह विभाग मूलकृत नहीं है-मूल परसे उसकी उपलब्धि नहीं होती, मूलको समझने में उससे कोई मदद भी नहीं मिलती और न मूलकारका वैसा कोई अभिप्राय ही जाना जाता है। उसकी सारी जिम्मेदारी टीकाकारपर है । इस टीकाने मूलको उल्टा कठिन कर दिया है । टीकामे बहुधा मूलका आश्रय छोड़कर अपना ही राग अलापा गया है-मूल का स्पष्टीकरण जैसा चाहिये था वैसा नहीं किया । टीकाके बहुतसे वाक्यों और पद्योंका सम्बन्ध परस्परमे नहीं मिलता । टीकाकारका आशय अपनी गद्य-पद्यात्मक काव्यशक्तिको प्रकट करनेका अधिक रहा है-उसके काव्योका मूलके साथ मेल बहुत कम है। अध्यात्म-कथन होनेपर भी जगह जगह पर स्त्रीका अनावश्यक स्मरण किया गया है और अलकाररूपमे उनके लिये उत्कठा व्यक्त की गई है, मानो सुख स्त्रीमे ही है। इस प्रथका टीकासहित हिन्दी अनुवाद ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने किया है और वह प्रकाशित भी होचुका है। ५. वारस-अणुवेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा)-इसमे १अध्र व (अनित्य), २ अशरण, ३ एकत्व, ४ अन्यत्व, ५ससार, ६ लोक, ७ अशुचित्व, आस्रव, सवर, १० निर्जरा, ११ धर्म, १२ बोधिदुर्लभ नामकी बारह भावनाओंका ६१ गाथाओमे वर्णन है। इस प्रथकी 'सव्वे वि पोग्गला खलु' इत्यादि पांच गाथाएँ (नं० २५ से २६ ) श्रीपूज्यपादाचार्य-द्वारा, जो कि विक्रमकी छठी शताब्दीके विद्वान हैं, सर्वार्थसिद्धिके द्वितीय अध्यायान्तर्गत दशवें सूत्रकी टीकामें 'उक्तं च रूपसे उद्धृत की गई हैं। ३. दसणपाहुड-इसमें सम्यग्दर्शनके माहात्म्यादिका वर्णन ३६ गाथाओमे है और उससे यह जाना जाता है कि सम्यग्दर्शनको ज्ञान और चारित्रपर प्रधानता प्राप्त है। वह धर्मका मूल है और इसलिये जो सम्यग्दर्शनसे-जीवादि तत्त्वोंके यथाथ श्रद्धानसेभ्रष्ट है उसको सिद्धि, अथवा मुक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकती ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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