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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची हुए भी उसे यो सी टीकामें लाकर घुसेडा है । ऐसी स्थितिमें सिद्धसेनदिवाकरको दिगम्वरपरम्परासे भिन्न एकमात्र श्वेताम्बरपरम्पराका समर्थक आचार्य कैसे कहा जा सकता है। नहीं कहा जा सकता । सिद्धसेनने तो श्वेताम्बरपरम्पराकी किसी विशिष्ट वातका कोई समर्थन न करके उल्टा उसके उपयोग-द्वय विपयक क्रमवादकी मान्यताका सन्मतिमें जोरोंके साथ खण्डन किया है और इसके लिये उन्हें अनेक साम्प्रदायिक कट्टरताके शिकार श्वेताम्बर आचार्योंका कोपभाजन एवं तिरस्कारका पात्र नक बनना पड़ा है । मुनि जिनविजयजीने 'सिद्धसेनदिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' नामक लेखमें उनके इस विचारभेदका उल्लेख "सिद्धसेनजीके इस विचारभेदके कारण उस समयके सिद्धान्त-ग्रन्थ-पाठी और आगमप्रवण आचार्यगण उनको 'तम्मन्य' जैसे तिरस्कार-व्यञ्जक विशेषणोसे अलकृत कर उनके प्रति अपना सामान्य अनादर-भाव प्रकट किया करते थे।" __ "इस (विशेपावश्यक) भाष्यमे क्षमाश्रमण (जिनभद्र)जीने दिवाकरजीके उक्त विचारभेदका खूब ही खण्डन किया है और उनको 'आगम-विरुद्ध-भापी' बतलाकर उनके सिद्धान्तको अमान्य बतलाया है।' ___ "सिद्धसेनगणीने 'एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः' (१-३१) इस सूत्रकी व्याख्यामे दिवाकरजीके विचारभेदके ऊपर अपने ठीक वाग्वाण चलाये है । गणीजीके कुछ वाक्य देखिये- 'यद्यपि केचित्पण्डितंमन्याः सूत्रान्यथाकारमर्थमाचक्षते तर्कबलानुविद्धवुद्धयो वारंवारेणोपयोगो नास्ति, तत्त न प्रमाणयामः, यत आम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारवारेणोपयोगं प्रतिपादयन्ति ।" दिगम्बर साहित्यमे ऐसा एक भी उल्लेख नहीं जिसमें सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनके प्रति अनादर अथवा तिरस्कारका भाव व्यक्त किया गया हो-सर्वत्र उन्हें बडे ही गौरवके साथ स्मरण किया गया है, जैसा कि ऊपर उद्धत हरिवंशपुराणादिके कुछ वाक्योंसे प्रकट है। अकलवदेवने उनके अभेदवादके प्रति अपना मतभेद व्यक्त करते हुए किसी भी कटु शब्दका प्रयोग नहीं किया, बल्कि बड़े ही आदरके साथ लिखा है कि "यथा हि असद्भूतमनुपदिष्ट च जानाति तथा पश्यति किमत्र भवतो हीयते" अर्थात् केवली (सर्वज्ञ) जिस प्रकार असद्भूत और अनुपदिष्टको जानता है उसी प्रकार उनको देखता भी है इसके माननेमें आपकी क्या हानि होती है ?-वास्तविक बात तो प्रायः ज्योकी यो एक ही रहती है। अकलकदेवक प्रधान टीकाकार आचार्य श्रीअनन्तवीर्यजीने सिद्धिविनिश्चयकी टीकामे 'असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः । द्वेधा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने ।' इस कारिकाकी व्याख्या करते हुए सिद्धसेनको महान् आदर-सूचक 'भगवान्' शब्दके साथ उलेखित किया है और जब उनक किसी स्वयूथ्यने-स्वसम्प्रदायके विद्वान्ने यह आपत्ति की कि 'सिद्धसेनने एकान्तके साधनम प्रयुक्त हेतुको कहीं भी असिद्ध नहीं बतलाया है अतः एकान्तके साधनमे प्रयुक्त हेतु सिद्धसनकी दृष्टिमे प्रसिद्ध है' यह वचन सूक्त न होकर अयुक्त है, तब उन्होंने यह कहते हुए कि क्या उसने कभी यह वाक्य नहीं सुना है' सन्मतिसूत्रकी 'जे सतवायदोसे' इत्यादि कारिका (३-५०) को उद्धृत किया है और उसके द्वारा एकान्तसाधनमे प्रयुक्त हेतुको सिद्धसेनकी दृष्टिम 'श्रसिद्ध प्रतिपादन करना सन्निहित बतलाकर उसका समाधान किया है। यथाः१ देखो, सन्मति-तृतीयकाण्डगत गाथा ६५की टीका (पृ० ७५४), जिसमें "भगवत्प्रतिमाया भूषणाया रोपण कर्मक्षयकारण" इत्यादि रूपसे मण्डन किया गया है। ५२ जनसाहित्यसशोधक, भाग १ अङ्क १ पृ० १०, ११ । करते हुए लिखा है
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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