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________________ १६४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची क्योंकि प्रथम तो श्वेताम्बरोंके आवश्यकनियुक्ति आदि कुछ प्राचीन भागों में भी दिगम्बर आगमोकी तरह भगवान महावीरको कुमारश्रमणके रूपमे अविवाहित प्रतिपादित किया है। और असुरकुमार-जातिविशिष्ट-भवनवासी देवोके अधिपति चमरेन्द्रका युद्धकी भावनाको लिये हुए सैन्य सजाकर स्वर्गमें जाना सैद्धान्तिक मान्यताओंके विरुद्ध जान पड़ता है। दूसरे, यह कथन परवक्तव्यके रूपमे भी हो सकता है और आगमसूत्रोमें कितना ही कथन परवक्तव्यके रूपमें पाया जाता है इसकी स्पष्ट सूचना सिद्धसेनाचार्यने सन्मतिसूत्रमें की है और लिखा है कि ज्ञाता पुरुषको (युक्ति-प्रमाण-द्वारा) अर्थकी सङ्गतिके अनुसार ही उनको व्याख्या करनी चाहिए। यदि किसी तरहपर यह मान लिया जाय कि उक्त दोनो पद्योंमें जिन घटनाओंका उल्लेख है वे परवक्तव्य या अलङ्कारादिके रूपमें न होकर शुद्ध श्वेताम्बरीय मान्यताएँ हैं तो इससे केवल इतना ही फलित हो सकता है कि इन दोनों द्वात्रिंशिकाओं (२, ५)के कर्ता जो सिद्धसेन हैं वे श्वेताम्बर थे ) इससे अधिक यह फलित नही हो सकता कि दूसरी द्वात्रिशिकाओ तथा सन्मतिसूत्रके का सिद्धसेन भी श्वेताम्बर थे, जबतक कि प्रबल युक्तियोंके बलपर इन सब ग्रन्थोका कर्त्ता एक ही सिद्धसेनको सिद्ध न कर दिया जाय, परन्तु वह सिद्ध नहीं है जैसा कि पिछले एक प्रकरणमें व्यक्त किया जा चुका है। और फिर इस फलित होने में भी एक वाधा और आती है और वह यह कि इन द्वात्रिंशिकाओंमें कोई कोई बात ऐसी भी पाई जाती है जो इनके शुद्ध श्वेताम्बर कृतियाँ हानेपर नहीं बनती, जिसका. एक उदाहरण तो इन दोनोंमे उपयोगद्वयके युगपत्वादका प्रतिपादन है, जिसे पहले प्रदर्शित किया जा चुका है और जो दिगम्बर परम्पराका सर्वोपरि मान्य सिद्धान्त है तथा श्वेताम्बर आगमोंकी क्रमवाद-मान्यताके विरुद्ध जाता है। दूसरा उदाहरण पॉचवी द्वात्रिंशिकाका निम्न वाक्य है: "नाथ त्वया देशितसत्पथस्थाः स्त्रीचेतसोऽप्याशु जयन्ति मोहम् । नैवाऽन्यथा शीघ्रगतिर्यथा गा प्राची यियासुर्विपरीतयायी ॥२५॥ (इसके पूर्वार्धमें बतलाया है कि 'हे नाथ -वीरजिन | आपके बतलाये हुए सन्मार्गपर स्थित वे पुरुष भी शीघ्र मोहको जीत लेते हैं---मोहनीयकर्मके सम्बन्धका अपने प्रात्मासे पूर्णतः विच्छेद कर देते हैं जो 'स्त्रीचेतसः' होते है-त्रियो-जैसा चित्त (भाव) रखते हैं अर्थात् भावस्त्री होते हैं। और इससे यह साफ ध्वनित है कि स्त्रियाँ मोहको पूर्णतः जोतनेमें समर्थ नहीं होती, तभी स्त्रीचित्तके लिये मोहको जीतनेकी बात गौरवको प्राप्त होती है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जव स्त्रियाँ भी पुरुषोकी तरह मोहपर पूर्ण विजय प्राप्त करके उसी भवसे मुक्तिको प्राप्त कर सकती हैं तब एक श्वेताम्बर विद्वानके इस कथनमें कोई महत्व मालूम नहीं होता कि 'स्त्रियो-जैसा चित्त रखनेवाले पुरुप भी शीघ्र मोहको जीत लेते हैं, वह निरर्थक जान पड़ता है। इस कथनका महत्व दिगम्बर विद्वानोंके मुखसे उच्चरित होनेमें ही है जो स्त्रीका मुक्तिका अधिकारिणी नहीं मानते फिर भी स्त्रीचित्तवाले भावस्त्री पुरुषों के लिये मुक्तिका विधान करते है । अतः इस वाक्यके प्रणेता सिद्धसेन दिगम्बर होने चाहिये, न कि श्वेताम्बर, और यह समझना चाहिये कि उन्होने इसी द्वात्रिंशिकाके छठे पद्यमें 'यशोदाप्रिय' पदके साथ जिस घटनाका उलेख किया है वह अलङ्कारकी प्रधानताको लिये हुए परवक्तव्यके रूपमें उसी प्रकारका कथन है १ देखो, अावश्यकनियुक्तिगाथा २२१, २२२, २२६ तथा अनेकान्त वर्ष ४ कि० ११-१२ पृ० १७६ ___पर प्रकाशित 'श्वेताम्बरोंमें भी भगवान् महावीरके अविवाहित होनेकी मान्यता' नामक लेख। - २ परवत्तन्वयपक्खा अविसिहा तेसु तेसु मुत्ते सु । अत्यगई उ तेसि वियजण जाणो कुणइ ॥२.१८॥
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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