SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ पुरातन - जैनवाक्य-सूची कर्ता सिद्धसेन के साथ भी जुड़ गया मालूम होता है और संभवतः इस विशेषणके जुड जानेके कारण ही तीनों सिद्धसेन एक ही समझ लिये गये जान पड़ते हैं । अन्यथा, पं० सुखलालजी श्रादिके शब्दों (प्र० पृ० १०३ ) में 'जिन द्वात्रिशिकाओंका स्थान सिद्धसेनके ग्रन्थोमें चढ़ता हुआ है' उन्हींके द्वारा सिद्धसेनको प्रतिष्ठितयश बतलाना चाहिये था, परन्तु हरिभद्रमूरिने वैसा न करके सन्मतिके द्वारा सिद्धसेनका प्रतिष्ठितयश होना प्रतिपादित किया है और इससे यह साफ ध्वनि निकलती है कि सन्मतिके द्वारा प्रतिष्ठितयश होने वाले सिद्धसेन उन सिद्धसेनसे प्रायः भिन्न हैं जो द्वात्रिंशिकाओको रचकर यशस्वी हुए हैं। हरिभद्रसूरिके कथनानुसार जब सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन दिवाकर' की श्राख्याको प्राप्त थे तब वे प्राचीन साहित्य में सिद्धसेन नामके विना 'दिवाकर' नामसे भी उल्लेखित होने चाहियें, उसी प्रकार जिस प्रकार कि समन्तभद्र 'स्वामी' नामसे उल्लेखित मिलते हैं: खोज करनेपर श्वेताम्बरसाहित्यमे इसका एक उदाहरण 'अजरक्खनंदिसेणो' नामकी उस गाथा में मिलता है जिसे मुनि पुण्यविजयजीने अपने 'छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामक लेखमें 'पावयणी धम्मकही' नामकी गाथा के साथ उद्धृत किया है और जिसमे आठ प्रभावक आचार्योंकी नामावली देते हुए दिवायरो' पदके द्वारा सिद्धसेनदिवाकरका नाम भी सूचित किया गया है । ये दोनो गाथाऍ पिछले समयादिसम्बन्धी प्रकरणके एक फुटनोटमें उक्त लेखकी चर्चा करते हुए उद्धृत की जा चुकी हैं। दिगम्बर साहित्यमे 'दिवाकर' का यतिरूपसे एक उल्लेख रविषेणाचायके पद्मचरितकी प्रशस्तिके निम्न वाक्यमे पाया जाता है, जिसमे उन्हें इन्द्र-गुरुका शिष्य, अर्हमुनिका गुरु और रविषेणके गुरु लक्ष्मणसेनका दादागुरू प्रकट किया है: आसीदिन्द्रगुरोर्दिवाकर-यतिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनिः । तस्माल्लक्ष्मणसेन-सन्मुनिरदः शिप्यो रविस्तु स्मृतम् ॥१२३-१६७॥ इस पद्यमे उल्लेखित दिवाकरयतिका सिद्धसेनदिवाकर होना दो कारणोसे अधिक सम्भव जान पड़ता है - एक तो समयकी दृष्टिसे और दूसरे गुरु नामकी दृष्टिसे । पद्मचरित वीरनिर्वाणसे १२०३ वर्षे ६ महीने बीतनेपर अर्थात् विक्रमसंवत् ७३४ मे बनकर समाप्त हुआ। है, इससे रविषेणके पड़दादा (गुरुके दादा) गुरुका समय लगभग एक शताब्दी पूर्वका अर्थात् विक्रमकी ७वी शताब्दीके द्वितीय चरण (६२६- ६५० ) के भीतर आता है जो सन्मतिकार सिद्धसेनके लिये ऊपर निश्चित किया गया है। दिवाकरके गुरुका नाम यहाँ इन्द्र दिया है, जो इन्द्रसेन या इन्द्रदत्त आदि किसी नामका सक्षिप्तरूप अथवा एक देश मालूम होता है। श्वेताम्बर पट्टावलियो में जहाँ सिद्धसेन दिवाकरका नामोल्लेख किया है वहाँ इन्द्रदिन्न नामक पट्टाचार्य के बाद 'अत्रान्तरे' जैसे शब्दों के साथ उस नामकी वृद्धि की गई है। हो सकता है कि सिद्धसेनदिवाकरके गुरुका नाम इन्द्र- जैसा होने और सिद्धसेनका सम्बन्ध आद्य विक्रमादित्य अथवा सवत्प्रवर्त्तक विक्रमादित्य के साथ समझ लेनेकी भूलके कारण ही सिद्धसेनदिवाकरका इन्द्रदिन्न श्राचार्यकी पट्टबाह्य-शिष्यपरम्परामे स्थान दिया गया हो । यदि यह कल्पना ठीक है और उक्त पद्यमें 'दिवाकरयतिः पद सिद्धसेनाचार्यका वाचक है तो कहना होगा कि सिद्धसेन - दिवाकर र विषेणाचार्य के पड़दादागुरु होनेसे दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य थे । अन्यथा यह कहुना अनुचित न होगा कि सिद्धसेन अपने जीवनमें दिवाकर की ख्याको प्राप्त नहीं थे, उन्हें यह नाम अथवा विशेषरण वादको हरिभद्रसूरि अथवा उनके निकटवर्ती किसी पूर्वाचार्यने /१ देखो, माणिकचन्द्र - ग्रन्थमाला में प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रस्तावना पृ० ८ । ~२ द्विशताभ्यधिके समासहस्र समतीतेऽद्ध' चतुष्कवर्षयुक्ते । जिनभास्कर-वद्धमान-सिद्ध े चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ॥१२३-१८१ ॥
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy