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________________ १५६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची स्तुतयो महार्थाः' जैसे वाक्यका उच्चारण किया जान पडता है, स्वामी समन्तभद्रके उत्तरकालीन रचनाएँ हैं। इन सभीपर समन्तभद्रके ग्रन्थोकी छाया पडी हुई जान पडती है। इस तरह स्वामी समन्तभद्र न्यायावतारके कर्ता, सन्मतिके कर्ता और उक्त द्वात्रिशिका अथवा द्वात्रिशिकाओके कर्ता तीनो ही मिद्धसेनोसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। उनका समय विक्रमी दूसरी-तीसरी शताब्दी है, जैसा कि दिगम्बर पट्टावली मे शकसवत ६० (वि० सं० १९५)के उल्लेखानुसार दिगम्बर समाजमैं आमतौरपर माना जाता है। श्वेताम्बर पट्टावलियोंम उन्हें 'सामन्तभद्र' नामसे उल्लेखित किया है और उनके समयका पट्टाचार्यरूपमें प्रारम्भ वीरनिर्वाणसंवत् ६४३ अर्थात् वि० सं० १७३से बतलाया है । साथ ही यह भी उल्लेखित किया है कि उनके पट्टशिष्यने वीर नि० स० ६६५ (वि० स० २२५)२/ में एक प्रतिष्ठा कराई है, जिससे उनके समयकी उत्तरावधि विक्रमकी तीसरी शताब्दीके प्रथम चरण तक पहुँच जाती है। इससे समय-सम्बन्धी दोनो सम्प्रदायोंका कथन मिल जाता है और प्रायः एक ही ठहरता है। ऐसी वस्तुस्थितिमें प० सुखलालजीका अपने एक दूसरे लेख 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर मे, जो कि 'भारतीयविद्या के उसी अङ्क (तृतीय भाग)मे प्रकाशित हुआ है. इन तीनों ग्रन्थोंके कर्ता तीन सिद्धसेनोका एक ही सिद्धसेन बतलाते हुए यह कहना कि 'यही सिद्धसेन दिवाकर "आदि जैनताकिक "-" जेन परम्परामे तकविद्याका और तर्कप्रधान सस्कृत वाडमयका आदि प्रणेता", "आदि जैनकवि", "आदि जैनस्तुतिकार", "आद्य जैनवादी" और 'आद्य जैनदार्शनिक" है क्या अर्थ रखता है और कैसे सगत हो सकता है ? इसे विज्ञ पाठक स्वय समझ सकते हैं। सिद्धसेनके व्यक्तित्व और इन सब विषयोंमे उनकी विद्यायोग्यता एवं प्रतिभाके प्रति वहुमान रखते हुए भी स्वामी समन्तभद्रकी पूर्वस्थिति और उनके अद्वितीय-अपूर्व साहित्यको पहलेसे मौजूदगोमें मुझे इन सब उद्गारोका कुछ भी मूल्य मालूम नहीं होता और न प० सुखलालजीके इन कथनोमे कोई सार ही जान पडता है कि-(क) 'सिद्धसेनका सन्मति प्रकरण जेनदृष्टि और जेन मन्तव्योको तर्कशैलीसे स्पष्ट करने तथा स्थापित करनेवाला जैनवाडमयमें सर्वप्रथम ग्रन्थ है' तथा (ख) स्वामी समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र और युक्तयनुशासन नामक ये दो दार्शनिक स्तुतियाँ मिद्धसेनको कृतियोका अनुकरण है। तर्कादि-विषयोंमें समन्भद्रकी योग्यता और प्रतिभा किसीसे भी कम नहीं किन्तु सर्वोपरि रही है, इसीसे अकलङ्कदेव और विद्यानन्दादि-जेसे महान तार्किको-दार्शनिको एव वादविशारदा आदिने उनके यशका खुला गान किया है, भगवजिनसेनने आदिपुराणमे उनके यशको कवियों, गमको, वादियों तथा वादियोके मस्तकपर चूडामणिकी तरह सुशोभित बतलाया है (इसी यशका पहली द्वात्रिंशिकाके तव शिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः' जैसे शब्दोमे उल्लेख है) आर साथ ही उन्हे कविब्रह्मा-कवियोको उत्पन्न करनेवाला विधाता-लिखा है तथा उनके वचनरूपी वज्रपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये, ऐसा उल्लेख भी किया है और इसलिये १ देखो, हस्तलिखित सस्कृत ग्रन्थों के अनुसन्धान-विषयक डा० भाण्डारकरकी सन् १८८३ ८४की रिपोर्ट पृ० ३२०, मिस्टर लेविस राइसकी 'इन्स्क्रिपशन्स ऐट श्रवणवेल्गोल'की प्रस्तावना और कर्णाटक शब्दानुशासनकी भूमिका । २ कुछ पट्टावलियोंमें यह समय वी० नि० स० ५६५ अथवा विक्रमसवत् १२५ दिया है जो किसी गलतीका परिणाम है और मुनि कल्याणविजयने अपने द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली में उसके सुधारकी सूचना की है। ३ देखो, मुनिश्री कल्याण विजयजी द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली पृ० ७६-८१ ४ विशेषके लिये देखो, 'सत्साधुस्मरण-मगलपाठ' पृ० २५से ५१ ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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