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________________ प्रस्तावना १५३ 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक लेखमें स्पष्ट करके बतलाया जा चुका है। समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड'का 'प्राप्तोपज्ञमनुलध्यम्' नामका शास्त्रलक्षणवाला पूरा पद्य न्यायावतारमें उद्धृत है, जिसकी रत्नकरण्डमें स्वाभाविकी और न्यायावतारमे उद्धरण-जैसी स्थितिको खूब खोलकर अनेक युक्तियोके साथ अन्यत्र दशाया जा चुका है। उसके प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना-जैसी बात भी अब नहीं रही, क्योकि एक तो न्यायावतारका समय अधिक दूरका न रहकर टोकाकार सिद्धपिक निकट पहुँच गया है दूसरे उसमे अन्य कुछ वाक्य भी समर्थनादिके रूपमें उद्धत पाये जाते हैं। जैसे साध्याविनाभुवो हेतोः" जैसे वाक्यमें हेतुका लक्षण आजानेपर भी "अन्यथानुपपन्नत्व हेतोलक्षणमीरितम्" इस वाक्यमें उन पात्रस्वामीके हेतुलक्षणको उद्धृत किया गया है जो समन्तभद्रके देवागमसे प्रभावित होकर जैनधर्ममें दीक्षित हुए थे। इसी तरह "दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्" इत्यादि आठवें पद्यमें शाब्द (आगम) प्रमाणका लक्षण आजानेपर भी अगले पद्यमे समन्तभद्रका "आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोधकम्" इत्यादि शास्त्रका लक्षण समर्थनादिके रूपमे उद्धृत हुआ समझना चाहिये । इसके सिवाय, न्यायावतारपर समन्तभद्रके देवागम (आप्तमीमांसा)का भी स्पष्ट प्रभाव है, जैसा कि दोनों ग्रन्या में प्रमाणके अनन्तर पाये जानेवाले निम्न वाक्योंकी तुलनापरसे जाना जाता है: "उपेक्षा फलमाऽऽद्यस्य शेषस्याऽऽदान-हान-धीः ।। पूर्वा(व) वाऽज्ञान नाशो वा सर्वस्याऽस्य स्वगोचरे ॥१०॥" (देवागम) "प्रमाणस्य फल साक्षादज्ञान विनिवर्तनम् । केवलस्य सुखोपेक्षे शेषस्याऽऽदान-हान धीः ॥२८॥” (न्यायावतार) ऐसी स्थितिमें व्याकरणादिके कर्ता पूज्यपाद और न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन दोनों ही स्वामी समन्तभद्रके उत्तरवर्ती है, इसमें सदेहके लिये कोई स्थान नहीं है । सन्मतिसूत्रके का सिद्धसेन चूंकि नियुक्तिकार एव नमित्तिक भद्रबाहुके बाद हुए है- उन्होंने भद्रबाहु के द्वारा पुरस्कृत उपयोग-क्रमवादका खण्डन किया है और इन भद्रबाहुका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है, यही समय सन्मतिकार सिद्धसेनके समयकी पूर्वसीमा है, जैसा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका है.। पूज्यपाद इस समयसे पहले गङ्गवशी राजा अविनीत (ई. सन् ४३०-४८०) तथा उसके उत्तराधिकारी दुविनीतके समयमें हुए हैं और उनके एक शिष्य वज्रनन्दीने विक्रम संवत् ५२६में द्राविडसघकी स्थापना की है जिसका उल्लेख देवसेनसूरिके दर्शनसार (वि० सं० १९८) ग्रन्थमें मिलता है। अतः सन्मतिकार सिद्धसेन पूज्यपादके उत्तरवर्ती हैं. पूज्यपादके उत्तरवर्ती होनेसे समन्तभद्रके भी उत्तरवर्ती हैं, ऐसा सिद्ध होता है । और इसलिये समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्र तथा आप्तमीमासा (देवांगम) नामक दो पाठक' शीर्षक लेख पृ० १८-२३, अथवा 'दि एनल्स ऑफ दि भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिटय ट पूना वोल्यूम १५ पार्ट १-२में प्रकाशित Samantabhadra's date and Dr K B A Pathak पृ० ८१-८८। - देखो, अनेकान्त वर्ष ५, किरण १०-११ पृ० ३४६-३५२ । -/२ देखो, 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० १२६-१३१ तथा अनेकान्त वर्ष ६ कि० १से ४में प्रकाशित रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषयमें मेरा विचार और निर्णय' नामक लेख पृ० १०२-१०४ । -३ यहाँ 'उपेक्षा के साथ सुखकी वृद्धि की गई है, जिसका अज्ञाननिवृत्ति तथा उपेक्षा(रागादिककी निवृत्तिरूप अनासक्ति)के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है। V४ "सिरिपुजपादसीसो दाविडसघस्स कारगो दुह्रो । णामेण वजणदी पाहुडवेदी ९ पचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्खिणमहुराजादो दाविडसघो
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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