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________________ १४० पुरातन-जैनवाक्य-सूची इनमेंसे पहली द्वात्रिंशिकाके उद्धरणमे यह सूचित किया है कि 'वीरजिनेन्द्रने सम्यग्ज्ञानसे रहित क्रिया (चारित्र)को और क्रियासे विहीन सम्यग्ज्ञानकी सम्पदाको क्लेशसमूहकी शान्ति अथवा शिवप्राप्तिके लिये निष्फल एवं असमर्थ बतलाया है और इसलिये ऐसी क्रिया तथा ज्ञानसम्पदाका निषेध करते हुए ही उन्होने मोक्षपद्धतिका निर्माण किया है। और १७वीं द्वात्रिशिकाके उद्धरणमे बतलाया है कि जिस प्रकार रोगनाशक औषधका परिज्ञानमात्र रोगकी शान्तिके लिये समर्थ नहीं होता उसी प्रकार चारित्रहित ज्ञानको समझना चाहिए-वह भी अकेला भवरोगको शान्त करने में समर्थ नहीं है। ऐसी हालतमे ज्ञान दर्शन और चारित्रको अलग-अलग मोक्षकी प्राप्तिका उपाय बतलाना इन द्वात्रिशिकाओंके भी विरुद्ध ठहरता है। "प्रयोग-विस्रसाकर्म तदभावस्थितिस्तथा । लोकानुभाववृत्तान्तः किं धर्माऽधर्मयोः फलम् ॥१९-२४॥ आकाशमवगाहाय तदनन्या दिगन्यथा । तावप्येवमनुच्छेदात्ताभ्या वाऽन्यमुदाहृतम् ॥१६-५॥ प्रकाशवदनिष्टं स्यात्साध्ये नार्थस्तु न श्रमः । जीव पुद्गलयोरेव परिशुद्धः परिग्रहः ॥१६-२६॥" इन पद्योमे द्रव्योको चर्चा करते हुए धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्योंकी मान्यताको निरर्थक ठहराया है तथा जीव और पुद्गलका ही परिशुद्ध परिग्रह करना चाहिए अर्थात् इन्हीं दो द्रव्योको मानना चाहिए, ऐसी प्रेरणा की है। यह सब कथन भी सन्मतिसूत्रके विरुद्ध है, क्योंकि उसके तृतीय काण्डमे द्रव्यगत उत्पाद तथा व्यय (नाश)के प्रकारोंको वतलाते हुए उत्पादके जो प्रयोगजनित (प्रयत्नजन्य) तथा वैस्रसिक (स्वाभाविक) ऐसे दो भेद किये हैं उनमे वैस्रसिक उत्पादके भी समुदायकृत तथा ऐकत्विक ऐसे दो भेद निर्दिष्ट किये है और फिर यह बतलाया है कि ऐकत्विक उत्पाद आकाशादिक तीन द्रव्यो (आकाश, धर्म. अधर्म)में परनिमित्त से होता है और इसलिये अनियमित होता है। नाशकी भी ऐसी ही विधि बतलाई है। इससे सन्मतिकार सिद्धसेनकी इन तीन अमूर्तिक द्रव्योंके. जो कि एक एक है, अस्तित्व-विषयमें मान्यता स्पष्ट है । यथा: "उप्पात्रो दुवियप्पो पोगजणिो य विस्ससा चेव । तत्थ उ पोगणिो समुदयवायो अपरिसुद्धो ॥३२॥ साभाविओ वि समुदयको व्व एगत्तित्रो व्व होज्जाहि । आगासाईआणं तिएह परप्रच्चोऽणियमा ॥३३॥ विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो । समुदयविभागमेत्त अत्यंतरभावगमणं च ॥३४॥" इस तरह यह निश्चयद्वात्रिंशिका कतिपय द्वात्रिशिकाओ, न्यायावतार और सन्मतिके विरुद्ध प्रतिपादनोको लिये हुए है। सन्मतिके विरुद्ध तो वह सबसे अधिक जान पड़ती है और इसलिये किसी तरह भी सन्मतिकार सिद्धसेनकी कृति नहीं कही जा सकती। यही एक द्वात्रिंशिका ऐसी है जिसके अन्तमें उसके कर्ता सिद्धसेनाचार्यको अनेक प्रतियोम श्वेतपट (श्वेताम्बर) विशेषणके साथ 'द्वेष्य' विशेषणसे भी उल्लेखित किया गया है जिसका अर्थ द्वेषयोग्य, विरोधी अथवा शत्रुका होता है और यह विशेषण सम्भवतः प्रसिद्ध जैन सैद्धान्तिक मान्यताओंके विरोधके कारण ही उन्हें अपनी ही सम्प्रदायके किसी असहिष्णु विद्वान्-द्वारा दिया गया जान पड़ता है। जिस पुष्पिकावाक्पके साथ इस विशेषण पदका प्रयोग किया गया है वह भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट पूना और एशियाटिक सोसाइटी बगाल (कलकत्ता)की प्रतियोमे निम्न प्रकारसे पाया जाता है
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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