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________________ १३२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची कितनी और कौन स्तुतिरूप हैं और कौन कौन स्तुतिरूप नहीं हैं। और इस तरह सभी प्रबंधरचयिता आचार्यों को ऐसी मोटी भूलके शिकार बतलाना कुछ भी जीको लगने वाली बात मालूम नहीं होती। उसे उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंकी संगति बिठलानेका प्रयत्नमात्र ही कहा जा सकता है, जो निराधार होनेसे समुचित प्रतीत नहीं होता। द्वात्रिंशिकाओं की इस सारी छान-बोनारसे निम्न बातें फलित होती हैं..१ द्वात्रिंशिकाएं जिस क्रममे छपी हैं उसी क्रमसे - निर्मित नहीं हुई हैं। २ उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाएं एक ही सिद्धसेनके द्वारा निर्मित हुई मालूम नहीं होती। ३ न्यायावतारकी गणना प्रबन्धोल्लिखित द्वात्रिंशिकाओंमे नहीं की जा सकती। ४ द्वात्रिंशिकाओंकी संख्यामें जो घट-बढ़ पाई जाती है वह रचनाके बाद हुई. है और उसमे कुछ ऐसी घट-बढ़ भी शामिल है जो कि किसीके द्वारा जान-बूझकर अपने किसी प्रयोजनके लिये की गई हो। ऐसी द्वात्रिंशिकाओंका पूर्ण रूप अभी अनिश्चित है। (५ उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओका प्रबन्धोमे वर्णित द्वात्रिशिकाओंके साथ, जो सब स्तुत्य त्मक हैं और प्रायः एक ही स्तुतिग्रंथ 'द्वात्रिंशद्वात्रिशिका' की अंग जान पड़ती हैं, सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता। दोनों एक दूसरेसे भिन्न तथा भिन्नकर्तृक प्रतीत होती हैं। ऐमी हालतमे किसी द्वात्रिंशिकाका कोई वाक्य यदि कहीं उद्धृत मिलना है तो उसे उसी द्वात्रिशिका तथा उसके कतां तक ही सीमित समझना चाहिये, शेष द्वात्रिंशिकाओंमेसे किसी दूसरी द्वात्रिंशिकाके विषयके साथ उसे जोड़कर उसपरसे कोई दूसरी बात उस वक्त तक फलित नहीं की जानी चाहिये जब तक कि यह साबित न कर दिथा जाय कि वह दूसरी द्वात्रिंशिका भी उसी द्वात्रिशिकाकारकी कृति है। अस्तु । अब देखना यह है कि इन द्वात्रिशिकाओं और न्यायावतारमेंसे कौन-मी रचना सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन आचार्यको कृति है अथवा हो सकती है ? (इस विषयमे पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने अपनी प्रस्तावनामे यह प्रतिपादन किया है कि २१वीं द्वात्रिंशिकाको छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएं, न्यायावतार और सन्मति ये सब एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हैं और ये सिद्धसेन वे हैं, जो उक्त श्वेताम्बरीय प्रबन्धोंके अनुसार वृद्धवादीके शिष्य थे और 'दिवाकर' नामके साथ प्रसिद्धिको प्राप्त हैं। दूसरे श्वेताम्बर विद्वानोंका विना किसी जाँच-पडताल के अनुसरण करनेवाले कितने ही जैनेतर विद्वानों की भी ऐसी ही मान्यता है और यह मान्यता ही उस सारी भूल-भ्रान्तिका मूल है जिसके कारण सिद्धसेन-विषयक जो भी परिचय-लेख अब तक लिखे गये वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं, कितनी ही गलतफहमियोंको फैला रहे हैं और उनके द्वारा सिद्धसेनके समयादिकका ठीक निर्णय नहीं हो पाता । इसी मान्यताको लेकर विद्वद्वर पं० सुग्वलाल जीको स्थिति सिद्ध सेनके समय-सम्बन्धमे बराबर डॉवाडोल चली जाती है। आप प्रस्तुत सिद्धसेनका समय कभी विक्रमकी छठी शताब्दीसे पूर्व ५वीं शताब्दी बतलाते हैं. कभी छठी शताब्दीका भी उत्तरवर्ती समय कह डालते हैं, कभी सन्दिग्धरूपमें छठी या सातवीं शताब्दी/निर्दिष्ट करते हैं और कभी ५वीं तथा ६ठी शताब्दीका मध्यवर्ती काल/प्रतिपादन करते हैं। और बड़ी मजेकी बात यह है कि जिन प्रबन्धोंके आधारपर सिद्धमेन दिवाकर का परिचय दिया जाता है उनमें न्यायावतार' का नाम तो किसी तरह एक प्रबन्धमें पाया भी जाता है परन्तु सिद्धसेनकी कृतिरूपमे सन्मतिसूत्रका कोई उल्लेख कहीं भी उप१ सन्मतिप्रकरण-प्रस्तावना पृ० ३६, ४३, ६४, ६४ । २ ज्ञानविन्दु-परिचय पृ०६।। ३ सन्मतिप्रकरणके अंग्रेजी संस्करणका फोरवर्ड (Forword) और भारतीयविद्यामें प्रकाशित 'श्रीसिद्ध सेन दिवाकरना समयनो प्रश्न' नामक लेख-भा० वि० तृतीय भाग पृ० १५२ । ४ 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर' नामक लेख-भारतीयविद्या तृतीय भाग पृ. ११ ॥
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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