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________________ १२६ पुरातन-जैनवाक्य-सूची लाया गया है-अमतचन्द्रसूरिने भी जिसे 'गहन' और 'दुरासद' लिखा है-उसपर जैन वाङमयमे कितने ही प्रकरण अथवा 'नयचक्र' जैसे स्वतंत्र ग्रंथ भी निर्मित है, उनका साथ मे अध्ययन अथवा पूर्व-परिचय भी इस ग्रंथके समुचित अध्ययनमे सहायक है। वास्तवमें यह ग्रंथ सभी तत्त्वजिज्ञासुओं एवं आत्महितैषियों के लिये उपयोगी है । अभी तक इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ है । वीरसेवामन्दिरका विचार उसे प्रस्तुत करनेका है। (क) ग्रंथकार सिद्धसेन और उनकी दूसरी कृतियाँ इस सन्मति' ग्रंथके कर्ता आचार्य सिद्धसेन है, इसमे किसीको भी कोई विवाद नहीं है। अनेक ग्रंथो में ग्रंथनामके साथ सिद्धसेनका नाम उल्लेखित है और इस ग्रन्थके वाक्य भी सिद्धसेन नामके साथ उद्धृत मिलते हैं; जैसे जयधवलामे आचार्य वीरसेनने 'णामट्ठवणा दविय' नामकी छठी गाथाको ‘उक्त च सिद्धसणेण" इस वाक्यके साथ उद्धृत किया है और पंच वस्तुमे आचार्य हरिभद्रने "आयरियसिद्धसेणेण सम्मईए पइट्ठिअजसेण" वाक्य के द्वारा 'सन्मति' को सिद्धसेनकी कृतिरूपमें निर्दिष्ट किया है, साथ ही कालो सहाव णियई' नामकी एक गाथा भी उसकी उद्धृत की है। परन्तु ये सिद्धसेन कौनसे हैं-किस विशेष परिचयको लिये हुए हैं ? कौनसे सम्प्रदाय अथवा आम्नायसे सम्बन्ध रखते हैं ?, इनके गुरु कौन थे ?, इनकी दूसरी कृतियाँ कौन-सी हैं ? और इनका समय क्या है ? ये सब बातें ऐसी हैं जो विवादका विषय जरूर हैं। क्योंकि जैनसमाजमे सिद्धसेन नामके अनेक आचार्य और प्रखर तार्किक विद्वान भी होगये हैं और इस ग्रंथ में ग्रंथकारने अपना कोई परिचय दिया नहीं, न रचनाकाल ही दिया है-ग्रंथकी आदिम गाथामें प्रयुक्त हुए 'सिद्ध' पदके द्वारा श्लेषरूपमे अपने नामका सूचनमात्र किया है, इतना ही समझा जा सकता है। कोई प्रशस्ति भी किसी दूसरे विद्वानके द्वारा निर्मित होकर अथके अन्तमे लगी हुई नहीं है । दूसरे जिन प्रथों-खासकर द्वात्रिंशिकाओं तथा न्यायावतार-को इन्हीं आचार्यकी कृति समझा जाता और प्रतिपादन किया जाता है उनमे भी कोई परिचय-पद्य तथा प्रशस्ति नहीं है औन न कोई ऐसा स्पष्ट प्रमाण अथवा युक्तिवाद ही सामने लाया गया है जिनसे उन सब ग्रंथोंको एक ही सिद्धसेनकृत माना जा सके। और इसलिये अधिकॉशमें कल्पनाओं तथा कुछ भ्रान्त धारणाओंके आधारपर ही विद्वान् लोग उक्त बातोंके निर्णय तथा प्रतिपादनमें प्रवृत्त होते रहे हैं. इसीसे कोई भी ठीक निणय अभी तक नहीं हो पाया-वे विवादापन्न ही चली जाती है और सिद्धसेनके विपयमे जो भी परिचय-लेख लिखे गये हैं वे सब प्रायः खिचड़ी बने हए हैं और कितनी ही गलतफहमियोंको जन्म दे रहे तथा प्रचारमें ला रहे हैं। अतः इस विषयमे गहरे अनुसन्धानके साथ गम्भीर विचारकी जरूरत है और उसीका यहॉपर प्रयत्न किया जाता है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें सिद्धसेनके नामपर जो प्रथ चढ़े हुए हैं उनमेसे कितने ही ग्रंथ तो ऐसे हैं जो निश्चितरूपमें दूसरे उत्तरवत्ती सिद्धम्मेनोंकी कृतियाँ हैं जैसे १ जीतकल्पचूर्णि, २ तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी टीका, ३ प्रवचनसारोद्धारकी वृत्ति, एकविंशतिस्थानप्रकरण (प्रा०) और ५ सिद्धिश्रेयसमुदय (शकस्तव) नामका मंत्रगर्मित गद्यस्तोत्र । कुछ ग्रंथ ऐसे हैं जिनका सिद्धसेन नामके साथ उल्लेख तो मिलता है परन्तु आज वे उपलब्ध नहीं हैं, जैसे १बहत षड्दर्शनसमुच्चय(जनप्रथावली पृ०६४),२ विषोग्रग्रहशमन१ देखो, पुरुषार्थसिद्धयुपाय--"इति विविधभङ्ग-गहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम्" । (५८) "अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं, जिनवरस्य नयचक्रम्" । (५६) हो सकता है कि यह ग्रन्थ हरिभद्रसूरिका 'षड्दर्शनसमुच्चय' ही हो और किसी गलतीसे सूरत के उन सेठ भगवानदास कल्याणदासकी प्राइवेट रिपोर्ट में, जो पिटर्सन साहबकी नौकरीमें थे, दर्ज होगया हो,
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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