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________________ प्रस्तावना ११३ है और फिर यह सूचना की गई है कि जिस प्रकार वृपभदेवने अपने वृपभसेन गणधरको उसके प्रश्नपर यह सब द्वादशाहश्र त प्रतिपादित किया है उसी प्रकार दूसरे तीर्थंकरोंने भी अपने अपने गणधरोके प्रति प्रतिपादित किया है। तदनुसार ही श्रीवर्द्धमान तीर्थकरके मुखकमलसे निकले हुए द्वादशाग तज्ञानकी श्रीगौतम गणधरने अविरुद्ध रचना की और वह द्वादशागश्रत वादको पूर्णतः अथवा खण्डशः जिन जिनको आचार्य-परम्परासे प्राप्त हुआ है उन आचायों का नामोल्लेख किया है। और इस तरह श्र तज्ञानकी परम्पराको बतलाया है। इसकी कुल गाथा-संख्या २४८ है और वह तीन अधिकारोंमे विभक्त है । प्रथम अंगनिरूपणाधिकार में ७७, दूसरे चतुर्दशपूर्वाधिकारमे ११७ और तीसरे चूलिकाप्रकीर्णकाधिकारमे ५४ गाथाएँ हैं। इस प्रथके कर्ता भट्टारक शुभचन्द्र हैं, जिन्होंने प्रथमे अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है :-सकलकीर्तिके पट्टशिष्य भुवनकीर्ति, भुवनकीर्तिके पट्टशिष्य ज्ञानभूपण, ज्ञानभूपणके शिष्य विजयकीर्ति और विजयकीर्तिके शिष्य शुभचन्द्र (ग्रंथकार)। शुभचन्द्र नामके यद्यपि अनेक विद्वान आचार्य होगए हैं, जिनका समय भिन्न है और उनकी अनेक कृतियाँ भी अलग अलग पाई जाती है, परन्तु ये विजयकीर्तिके शिष्य और ज्ञानभूपण भ० के प्रशिष्य शुभचन्द्र विक्रमकी १६वीं शताब्दीके उत्तरार्ध. और १७वीं शताब्दीके पूर्वार्धके विद्वान हैं, क्योंकि इन्होंने संवत् १५७३ मे समयसारकलशाकी टीका ‘परमाध्यात्मतरंगिणी लिखी है, सं० १६०८ मे पाण्डवपुराणकी तथा संवत् १६११ में करकंडुचरितकी और सं० १६१३ मे कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीकाको बनाकर समाप्त किया है। पाण्डवपुराणमें चूँकि उन 'ग्रंथोंकी एक सूची दी हुई है जो उसकी रचनासे पहले बन चुके थे और उनमे अंगप्रज्ञप्तिका भी नाम है। अतः यह ग्रथ वि० संवत् १६०८ से पहलेकी रचना है । कितने पहले की ? यह नहीं कहा जा सकता-अधिकसे अधिक ३०-४० वर्ष पहलेकी हो सकती है। ५६. सिद्धान्तसार—यह ७६ गाथाओंका ग्रंथ सिद्धान्त-विपयक कुछ कथनोंके सारको लिए हुए है और वे कथन हैं-१(१) चौदह मार्गणाओंमे १५ जीवसमास, १४ गुणस्थान, १५ योग, १२ उपयोग और ५७ प्रत्यय अर्थातु आस्रव, (२) चौदह जीवसमासों मे १५ योग १२ उपयोग तथा ५७ आस्रव, और (३) चौदह गुणस्थानोंमे १५ योग १२ उपयोग तथा ५७ श्रास्त्र । इन सब कथनोंकी सूचना तृतीय गाथामे की गई है, जो इस प्रकार है | जीव-गुणे तह जोए सपञ्चए मग्गणासु उवओगे। जीव-गुणेसु विजोगे उवजागे पच्चए वुच्छं ॥३॥ इसके बाद क्रमश गर्गणाओं, जीवसमासो और गुणस्थानोंमे योगों तथा उपयोगोंकी सख्यादिका कथन करके अन्तमे प्रत्ययों (आसवों ) की सख्यादिका कथन किया गया है। यह प्रथ अपने विपयका एक महत्वका सूत्रग्रंथ है। इसमें अतिसक्षेपसे-सूत्रपद्धतिसेप्रायः सूचनारूपमे कथन किया गया है। और ग्रंथमे रही हुई त्रुटियोंको सुधारने तथा कमी की पूति करनेका अधिकार भी ग्रंथकारने उन्हीं साधुओंको दिया है जो वेरसूत्रगेह हैंउत्तम सूत्रोंके मन्दिर हैं साथ ही जिननाथके भक्त हैं, विरागचित्त हैं और (सम्यग्दर्शनादिरूप) शिवमार्गसे युक्त हैं३ । और इसमे यह जाना जाता है कि ग्रंथकारमे ग्रंथके रचनेकी कितनी सावधानता थी। अस्तु । V१ देखो, वीरसेवामन्दिरका 'जैन-ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह' पृ० ४२, ४७, ५४, १३६ । ४२ "कृता येनाङ्गप्रशप्तिः सर्वाङ्गार्थप्ररूपिका"-२५-१८० ॥ ३ सिद्धतसारं वरसुत्तगेहा सोहतु साहू मय-मोह-चत्ता । पूरतु होणं जिणणाहभत्ता विरायचित्ता सिवमगजुत्ता ॥ ७६ ॥
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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