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________________ प्रस्तावना १११ वर-सारेत्तय-णिउणो सुद्धप्परमो विरहिय-परभाओ। भवियाणं पडिवाहणपरो पहाचंदणाममुणी ॥ १२३ ॥ इति भावसंग्रहः समाप्तः ।" इसमें बतलाया है कि श्रुतमुनिके अणुव्रतगुरु बालेन्दु-बालचन्द्र मुनि थे-बालचन्द्रमुनिसे उन्होंने श्रावकीय अहिंसादि पाँच अणुव्रत लिये थे, महाव्रतगुरु अर्थात् उन्हें मुनिधर्ममें दीक्षित करनेवाले आचार्य अभयचन्द्र सिद्धान्ती थे और शास्त्रगुरु अभयसूरि तथा प्रभाचन्द्र नामके मुनि थे। ये सभी गुरु-शिष्य (संभवतःप्रभाचन्द्रको छोड़कर') मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छके कुन्दकुन्दान्वयकी इंगलेश्वर शाखामें हुए हैं। इनमे बालचन्द्रमुनि भी अभयचन्द्र-सिद्धान्तीके शिष्य थे और इससे वे अ तमुनिके ज्येष्ठ गुरुभाई भी हुए। शास्त्रगुरुवोमें अभयसूरि भी सिद्धान्ती थे, शब्दागम-परमागम-तकांगमके पूर्णजानकार थे और उन्होंने सभी परवादियोंको जीता था; और प्रभाचन्द्रमुनि उत्तम सारत्रयमे अर्थात् प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकायसार नामके ग्रंथोंमे निपुण थे, परभावसे रहित हुए शुद्धात्मस्वरूपमे लीन थे और भव्यजनोंको प्रतिवोध देने में सदा तत्पर थे। प्रशस्तिमे इन सभी गुरुवोंका जयघोप किया गया है, साथ ही गाथाओंमे चारुकीर्तिमुनिका भी जयघोष किया गया है, जोकि श्रवणवेल्गोलको गद्दीके भट्टारकोंका एक स्थायी रूढनाम जान पड़ता है, और उन्हें नयों-निक्षेपों तथा प्रमाणोंके जानकार. सारे धर्मों के विजेता, नृपगणसे वदितचरण, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता और जिनमार्गपर चलनेमें शूर प्रकट किया है। प्रथमे रचनाकाल दिया हुआ नहीं और इससे ग्रंथकारका समय उसपरसे मालूम नहीं होता। परन्तु 'परमागमसार' नामके अपने दूसरे ग्रंथमे ग्रंथकारने रचनाकाल दिया है और वह है शक सवत् १२६३ (वि०सं० १३६८) वृष संवत्सर, मंगसिर सुदी सप्तमी, गुरुवारका दिन) जैसा कि उसकी निम्न गाथासे प्रकट है : सगगाले हु सहस्से विसय-तिसही १२६३ गदे दु विसवरिसे । मग्गसिरसुद्धसत्तमि गुरुवारे गंथसंपुरणो॥ २२४ ॥ इसके बाद उक्त प्रन्थमें भी वही प्रशस्ति दी हई है जो इस भावसंग्रहके अन्तमें पाई जाती है-मात्र चारुकोर्ति सम्बन्धी दूसरी गाथा (१२२) उसमें नहीं है। और इसपरसे श्र तमुनिका समय बिलकुल सुनिश्चित होजाता है-वे विक्रमकी १४वीं शताब्दीके विद्वान् थे। ५५. श्रास्त्रवत्रिभंगी-यह ग्रन्थ भी भावत्रिभंगी (भावसंग्रह) के कर्ता अतमुनिकी ही रचना है। इसमे मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग इन मूल आस्रवोंके क्रमशः ५. १२ २५, १५, ऐसे ५७ भेदोंका गुणस्थान और मार्गणाओंकी दृष्टिसे वर्णन है। ग्रंथ अपने विषयका अच्छा सूत्रग्रंथ है और उसमे गोम्मटसारादि दूसरे ग्रंथोंकी भी अनेक गाथाओंको अपनाकर ग्रंथका अंग बनाया गया है; जैसे 'मिच्छतं अविरमण' नामकी दूसरी गाथा गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी ७८६ नं० की गाथा है और 'मिच्छोदएण मिच्छत्तं' नामकी तीसरी गाथा गोम्मटसार-जीवकाण्डकी १५नंबरकी गाथा है। इस ग्रंथकी कुल गाथासंख्या ६२ है । अन्तकी गाथामे 'बालेन्दु' (बालचन्द) का जयघोष किया गया है- जो कि श्रतमुनिके अणुव्रत गुरु थे और उन्हें विनेयजनोंसे पूजामाहात्म्यको प्राप्त तथा कामदेवके १ अपनी शाखाके गुरुवोंका उल्लेख करते हुए अभयसूरिके बाद प्रभाचन्द्रका जयघोष न करके चारुकीर्तिके भी बाद जो प्रभाचन्द्रका परिचय पद्य दिया गया है उसपरसे उनके उसी शाखाके मुनि होनेका सन्देह होता है।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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