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________________ प्रस्तावना। [पुराण लक्षण और संख्या] सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चेति, पुराणं पंच लक्षणम् ॥ [मत्स्य पुराण] जगत् सृष्टि, प्रलय, महानुभावां का वंश मनुओ के अधिकार और समय तथा उक्त वंश वालो के चरित्र इन पांच विषयों का जिसमें वर्णन हो उसको पुराण कहते हैं। 'पुराणों की संख्या और नाम का उल्लेख भी पुराण अन्यों में दिया है उनकी संख्या अठारह और नाम ये हैं अष्टादश पुराणानि पुराणज्ञाः प्रचक्षते । ब्राझं पाझं वैष्णवं च शैवं भागवतं तथा ॥ (१) ऐतिरेय ब्राध्यण के उपक्रम में सायणाचार्य ने इतिहास और पुराण का लक्षण इस प्रकार लिया है-"देशमुरा. मंयत्ता प्रासन्" इत्यादि इतिहासा. “इदं वा श्रौ नैव किंचिदासीदित्यादि फ" जगतः प्रागवन्धानुरक्रम्प सर्गप्रतिपादक वाक्यजात पुराण । अर्थात देवासुर संग्राम वर्णन का नाम इतिहास और पहले यह असव था और कुछ नहीं था इत्यादि जगन की प्रथम अवस्था का प्रारम्भ कर मुष्टि प्रक्रिया के वर्णन को पुगर कहते हैं। महामति शकराचार्य ने भी रहदारण्योपनिर के भाग्य में इनिहाय पुराण का लक्षण प्राय इसी प्रकार से किया है। यथा-"इतिहास इन्युवंशी पुररवतोः सम्बादादि रुर्वशीहाप्सरा इत्यादि प्राममेव । पुरागमसद्वाइट. मग्र प्राप्तीदिन्यादि।
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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