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________________ पुराण और जैन धर्म करने से विष्णु ने शंकर का स्मरण किया और उनको मन से प्रांत करके नारद को याद किया ॥४२॥ विष्णु के स्मरण मात्र से नारद • जी वहां उपस्थित हुए और प्रणामपूर्वक हाथ जोड़ उनके सामने आ खड़े हुए ॥४ा विष्णु ने नारद जी से कहा कि लोकोपकार में निरत रहते हुए तुम सदा ही देव कार्य करते हो ॥४४॥ हे तात ! मैं तुमसे शिव जी की आज्ञा से कहता हूं, तुम शीघ्र ही त्रिपुर में जाओ, वहां एक ऋषि अपने शिष्यों सहित वहां के निवासियों को मोहित करने के लिये गये हैं ।।४५|| सनकुमार जो बोले कि भगवान के इन श्रेष्ठ वचनों को सुनकर मुनि-पुंगव नारद बड़ी शीघ्रता से वहां गये जहां कि वह मायावी ऋषि थे।४६||इस प्रकार मायाधीश भगवान् विष्णु की आज्ञा से उस पुर में प्रविष्ट होकर उस मायी से दीक्षित हुए ॥४७॥ इसके अनन्तर नारद जी ने, त्रिपुराधीश के समीप जाकर, क्षेम कुशल आदि पूछ कर ( आगे लिखा ) सब वृत्तान्त सुनाया ॥ ४८ ॥ नारदजी ने कहा कि आपके नगर में धर्म परायण कोई एक यति । आया है, वह सर्व विद्या सम्पन्न तथा वेद विद्या में निपुण है ।।४९॥ हमने बहुत से धर्म देखे परन्तु इसके समान कोई धर्म हमारी दृष्टि में नहीं आया। हमने इस सनातन धर्म को देख कर ही दीक्षा ग्रहण की है ॥५०॥ हे दैत्य सत्तम! यदि आपकी इच्छा हो तो आप भी उस धर्म की दोक्षा ग्रहण कीजिये ? ॥५१॥ सनत्कुमार बोले कि नारद जी के इन वचनों को सुन कर वह दैत्यपति बड़ा हा विस्मित हुआ और मोहित हो जाने से वहां माया ॥५२॥ जबकि नारद जी ने दीक्षा ला है तब हम भी वहा
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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