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________________ पुगग और जैन धर्म [ शिव पुराण [] शिव पुराण में भी जैन धर्म की उत्पत्ति का कुछ जिकर है। उसमें जो कुछ लिखा है वह पूर्वोक्त पुराण ग्रन्थों के लेख में भी विलक्षण है । पाठकों के विनोदार्थ उसे भी हम यहां पर उद्धत करते हैं:- तथाहि ३७ सनत्कुमार उवाच: श्रमृजच्च महातेजाः पुरुपं स्वात्मसम्भवम् । एकं मायामयं तेषां धर्मविनार्थमच्युत ॥१॥ मुण्डिनं म्लानवस्त्रं च गुम्फिपात्र समन्वितम् । दधानं पुंजिकां हरते चालतं पदे पढ़े ||२|| वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं क्षिप्यमाणं मुखेसदा । धर्मेति व्याहरन्तं तं वाचा किल्लवया मुनिम् ॥ ३॥ स नमस्कृत्य विष्णुं तं तत्पुरस्संस्थितोऽथवै । उवाच वचनं तत्र हरिं सः प्रांजलिस्तदा ||४|| रिहन्नच्युतं पूज्यं किं करोमि तदादिश । कानि नामानि मे देव स्थानं वापि वद प्रभो ॥५॥ इत्येवं भगवान् विष्णुः श्रुत्वा तस्य शुभं वच । 'प्रसन्नमानसो भूत्वा वचनं चेदमत्रवीत् ॥६॥ [कलकत्ता बंगाल प्रावृत्ति शिवपुराण ज्ञान मं० ० २१-२२ पु० ८३ थोड़े फेर फार से मिलता है ।] वृष्टि इति पाठः ।
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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