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________________ पुराण और जैन धर्म विषय में इतना निःशंक कहा जा सकता है कि यह लेख, जैन पश्चाद्भावी बौद्ध-धर्म के भी बहुत समय पीछे का है। क्योंकित लेख में सत्र जगह प्राय भूतकाल की क्रिया का ही प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। [द्वेष की पराकाष्ठा ] विष्णु पुराण के देखने में एक बात और भी प्रतीत होती है वह यह कि उस समय जैन और बौद्ध धर्मानुयायियों के साथ अन्य धर्मानुयायियों का इनना विरोध बढ़ रहा था कि वे इनके साथ पर्श और सम्भापण करने में भी पाप समझतं थे। (तस्मादेतान्नरोनग्नांस्त्रयीसंत्यागदूपितान् । सर्वदा वर्जयेत् प्राज्ञः पालाप स्पर्शनादिपु ॥] [घ०१८ अंश ३] तबाहि-इम सम्बन्ध में वहां एक कया है कि शत धनुः राजा और उसकी "दीच्या" नाम की भाया दोनों बडे धर्मामा तया विष्णु के परम भन थे। एक समय कार्तिकी पालिमा को उन दोनों ने उपवाम किया दोनों गगा ने स्नान करने को गये जब वे वहां ने म्नान कर लौटे तो राम्न में उनको एक पाखण्डी-जैन अथवा बौद्ध साधु मिल गया । वह राजा के धनुविद्याचार्य का मित्र था इस लिये राजा को उनके नार बोलना पड़ा. नगर रानी ने उनसे मिनी प्रकार का नन्भारण नहीं किया। गनी तो मर कर गाशीगज की पुत्री बनी और राना कुना बना रानी को जाति का स्मरण नान होने के कारण उसने गजागे पूर्व जन्म रा बोध गया।
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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