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________________ पुराण और जैन धर्म २९ _ 'और असत् भी है। यह कर्म मोक्ष के लिये है और मोक्ष का विरोधी भी है । यह परमार्थ है और परमार्थ नहीं भी । यह करने योग्य है और नहीं करने लायक भी है । एवं यह इस प्रकार है और नहीं भा । यह न्यावाद] दिगम्बरा और श्वेताम्बरों का समान धर्म है । हे मैत्रेय ! इस तरह अनेक प्रकार से अनेकान्तवाद को चतलाते हुए उस मायामोह ने देत्यां से स्वयम वेद विहित धम] का परित्याग करा दिया। जिस लिये मायामोह ने अमरों से "इम धर्म अर्हथ" [इस धर्म का पूजन करो] इसमें "अर्हथ" ऐने कहा, इसलिये उस धर्म के अनुयायी आहेत-जैन-कहलाये । इस प्रकार मायामोह ने जिन अनुरों से वैदिक धर्म का परित्याग कराया वे तन्मय होकर अन्यो को उपदेश करने लगे और उन्होंने औरों को उपदेश दिया इस तरह थोड़े ही दिनों में प्राय. सभी देत्य, वैदिक धर्म का त्याग कर बैठे ॥१-१४॥ फिर वही माया मोह [जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है] रक्त वस्रो को धारण कर, अन्य असुरों के पास जा, बड़ी मधुर वाणी से कहने लगे कि, हे श्रपुर लोगो ! यदि चारको स्वर्ग अथवा मोक्ष की अभिलाषा है तो आप इस पशु वधादि दुष्ट कर्म को छोड़ दा । मुनी ! यह सम्पूर्ण जगन विज्ञान मात्र है । प्राय लाग मेरे कथन को अच्छी तरह से समझो । विद्वानो का कथन है कि यह जगत आधार से शून्य और भ्रान्ति मात्र ही है। यह मनुष्य रागादि ने दुप हुयाही संसार में भ्रमण कर रहा है। तुम लोग समझने लायक जो है उसे समझो ? इस प्रकार पहने हुए मायामोह ने. उन दैत्यों को प्रश्ने धर्म से गिरा दिया। वह "मायामाह-"
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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