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________________ पुराण और जैन धर्म प्रयत्न किया गया है । यद्यपि पुराण लेखकों को इस प्रयत्न में कुछ नानना तो प्रान अवश्य हुई मगर इस प्रकार का कृत्य प्रतिष्ठित पुरुषों के लिये कितना शोभासद है यह भी विचार करने के योग्य है। हमारे विचार में पुराण वेदों से किसी प्रकार भी कम महत्त्व के नहीं। वे हिन्दू-संसार के लिये बड़े मोल की वस्तु हैं ! उनके शिक्षा-प्रद वाक्य बड़े हो कीमती है। प्राचीन हिन्दु-सभ्यता के वे पय-प्रदर्शक हैं, इसलिये हिन्दू जनता की उन पर जितनी श्रद्धा हो उतनी कम है, परन्तु इतना स्मरण रखना जरूरी है कि कहीं अद्वादेवी का दिव्य सिंहासन, अन्य श्रद्धा के पादस्पर्श से अपवित्र न होने पावे । अन्यथा बड़े ही अनर्थ को संभावना है। आज कल संसार में सत्यासत्य का निर्णय इसी लिए कठिन हो रहा है। अन्ध श्रद्धा मनुष्य के विचार स्वातन्त्र्य में बहुत वाधक है। हमारे ख्याल से विशुद्ध श्रद्धा का पक्षपाती और अन्ध श्रद्धा का विरोधी होना विचारशील मनुष्य का सब से पहला कर्तव्य होना चाहिये । इसी में उसको और जन समुदाय को लाभ है आशा है हमारे इस विचार में पाठकगण भी अवश्य सहमत होंगे। [विरोध मूलक किम्बदन्ति ] "हस्तिना ताड्यमानोपिनगच्छेज्जैन मन्दिरम्" यह उक्ति आवाल गोपाल प्रसिद्ध है। भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक में इसका प्रचार देखा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि " सामने से यदि हस्ती आता हो और उससे प्राण बचाने के लिये जैन मंदिर के सिवा और कोई स्थान न हो सजनो।
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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