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________________ } पुराण और जैन धर्म ९९ अपेक्षा अधिक सार' और अधिक महत्व की बातें होंगी तो सभ्य संसार उन्हें बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार करेगा और उनके सामने सिर मुकायेगा, तु और कुछ नहीं तो जनता में फैले हुए मिथ्या विचारों में तो कमी होगी ! [ उपसंहार ] हम मध्यस्थ वाद माला के इस द्वितीय पुष्प की समाप्ति करते हुए अपने पाठकों से यत्किचित् और भी निवेदन करें देते हैं। पुराणों में जैन धर्म विपथिक जो भी उल्लेस हमें मिला उसे हमने इस लेख में उद्धृत कर दिया है। उसका मनन करना तथा अपने विचारों का उस पर प्रकाश डालना अब पाठकों का काम है । हमारे विचारानुसार तो "हस्तिना ताव्यमानोपि न गन्छेज्जैनमंदिरम्" इत्यादि उक्तियों तथा जैन-मत की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाली विविध प्रकार की मिथ्या कल्पनाओं का उद्भव स्थान पुराणों के वे लेस हो प्रतीत होते हैं जिनका कि पहले जियर आ चुका है। पुराणों में थाये हुए जैन-धर्म सम्बन्धी लेखों को उद्धत करते समय हमने कहीं कहीं पर अपना विचार भी प्रकट किया है परन्तु वह अच्छा है या बुरा, मके लिए हम कुछ नहीं कह मक । सम्भव वह पार्थ दा, सम्भव है उसमें बहुत मां भूलें हों, इस बात की मीमांसा करना निःश्च समालोचकों का काम है, हमारी परिमित बुद्धि में जो शुद्र आया उसे हमने जनता के सम राप दिया, उसके उचिवानुचित के विवेचन का भार पाठकों
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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