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________________ vast पुराण और जैन धर्म ❤ -- प्रस्तुत किये जा चुके थे । जनता में से बहुतों ने ता उन्हें अपनाय और बहुतों ने उनका बड़ी प्रबलता से प्रतिवाद भी किया । इसलिये महाभारत के समय में जैन धर्म के अस्तित्व का सन्देह करना कम्फ से कम हमें तो भ्रमपूर्ण प्रतीत होता है । • हम अपने पाठकों को इतना और भी स्मरण करा देते हैं कि जैन मत की प्राचीनता अथवा अर्वाचीनता के लिये हमें किसी प्रकार की आह नहीं हमारे विचारानुसार प्रत्येक मत में अपेक्षाकृत प्राचीनता और नवीनता बनी हुई है। अतः वह ( 'जैन मत ) आज उत्पन्न हुआ हो चाहे हजार वर्ष से, इस पर हमें कुछ विवाद नहीं किन्तु "महाभारत के जमाने में जैन-धर्म का अस्तित्व नहीं या वह उसके बाद निकला" यह बात हमें किसा प्रकार 'उचित' प्रतीत नहीं होती ।' " ( वा० सं० १४ - १२ अर्थात् राजा दशरथ के यज्ञ में ब्राह्मण, शूद्र, तापस और श्रम आदि नित्य भोजन करने लगे। यहां पर श्लोक में जो श्रम शब्द आया है वह अधिकांश जैन साधुओं के हो लिये उपयुक्त हुआ है । जैन ग्रन्थों में साधु के लिये श्रमण शब्द का अधिक प्रयोग देखा गया है और टीकाकारने तो यहां श्रमण शब्द का अर्थ " वौद्ध सन्यासी वौद्ध साधु " किया है । तथाहि "श्रमणः बौद्ध 1 अब रही रामयण की बात सो उसमें भी एक स्थान पर लिखा है"ब्राह्मणा भुजते नित्यं, नाथवन्तश्च भुंजते । . तापसा भुंजते चापि, श्रमणाश्चैवभुंजते ॥" :
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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