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________________ प्रथम अध्यायः संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रमुख जैनाचार्य व्यक्तित्व व कृतित्व जैनाचार्यों ने जहां न्याय, व्याकरप, कोश आदि विविध विषयों पर मौलिक गन्थों की रचना की है, वहीं, काव्यशास्त्र जैसे लोकोपयोगी विषयों पर भी गन्धों का प्रपयन किया है, जिससे उनके काव्यशास्त्रीय ज्ञान का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यापि इन काव्यशास्त्रीय गन्थों की गफ्ना स्वल्प रही है तथापि इनमें कतिपय गन्धरत्न ऐसे हैं जिसमें उन्होंने अपनी कुछ विशिष्ट मान्यताएं प्रतिपादित की हैं। अत: संस्कृत काव्यशास्त्र में जैनाचार्यों की देन महत्वपूर्ण है। काल की दृष्टि से प्रथम जैनाचार्य आर्यरक्षित ईसा की प्रथम शताब्दी के हैं। तथा अन्तिम आचार्य सिद्विचन्द्रगपि ईसा की षोडश शती के हैं, इसके अतिरिक्त कई टीकाकार है, जिनकी परंपरा अष्टादश ती तक विस्तृत है। आर्य रक्षित यधपि विशुद्ध आलंकारिक नहीं हैं तथापि इनके द्वारा रचित 'अनुयोगदारसूत्र' से उनके अलंकारशास्त्रीय ज्ञान की झलक मिलती है। तत्पश्चात् एक लम्बी अवधि तक जैनाचार्यों द्वारा रचित अलंकारशास्त्रों का अभाव है। ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी में किसी अज्ञातनामा जैनाचार्य द्वारा प्राकृत भाषा में निबद्ध "अलंकारदप्पप" नामक गन्ध मिलता है। प्रथम शती के आर्यरक्षित व एकादश पाती के अलंकारदप्पपकार के अनन्तर वाग्भट प्रथम से प्रारम्भ होने वाली जैन आलंकारिकों की परंपरा मेहम प्रविष्ट होते हैं, जो द्वादश शताब्दी से अविच्छन्न चलती है। ___आचार्य वाग्भट प्रथम के "वाग्भटालंकार' में काव्यशास्त्रीय विषयों का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र कृत "काव्यानुशासन' गन्ध । उनका अलंकारविषयक एकमात्र गन्ध है। इस ग्रन्थ में अलंकारशास्त्रीय गुप-दोष,
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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