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________________ ६८ ] मुंबईप्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक। यमान थी। उसका पुन कीर्निचर्या था जो नल, मौर्य और कदम्ब वंशोंके लिये कालरात्रि था । यद्यपि वह परस्त्रीसे विरक्त था तथापि उस धीरका मन अपने शत्रुओंकी लमीसे आकर्षित था। पदम्बोंके वंशके विशाल कदम्बवृक्षको युद्ध में अपने पराक्रमसे विजयलक्ष्मीको प्राप्त करनेवाले महा तेनम्बी नृपके गजने खंड २ कर दिया था। जब इस राजाकी इच्छा इन्द्रसम विभृतिमें तृप्त हो गई थी तब उसके लघुभाई मंगलीश राजा हुए. जिन्होंने अपने घोड़े पूर्व पश्चिमके समुद्रोंके तटोंपर ठहराए थे तथा अपनी सेनाकी रजसे चारों तरफ मंडप छा दिया था। जिसने मातं? जातिके अन्धकारको अपनी सैकड़ों चमकती हुई तलवारोंके दीपकोंसे दूर करके युद्धके मध्यमें कटचूरियों (कलचूरियों)के वंशकी लकीपी सुन्दर स्त्रीको अपनी स्त्री बना लिया था और फिर जब उसने शीघही रेवतीद्वीप ( हारका जहां रैवताचल या गिरनार है ) को लेना चाहां तब उसकी विशाल सेना जो सुन्दर पताकाओंसे शोभित व निसने किलोंको घेर लिया था समुद्रमें ऐसी झलकती थी मानो वरुणकी सेना ही उसके वश में हो गई है। ___जब उसके बड़े भाईक पुत्र पुलकेशीको-ओनके ममानप्रभावशाली था-लक्ष्मीदेवीने पसन्द किया तथा उसने अपने चारित्र व्यापार और बुद्धिमें यह समझा कि उसके चाचा उसकी तरफ ईर्षा भाव रखते हैं, तब पुलकेशी द्वारा संग्रहीन मंत्र, उत्साह तथा शक्तिके प्रयोगसे मंगलीशकी शक्ति बिलकुल नष्ट हो गई और उसके इस प्रयत्नमें कि वह राज्यको अपने ही पुत्र के लिये खखे, मंगलीशने अपना राज्य तथा जीवन खो दिया। जब इस तरह मंगलीशका
SR No.010444
Book TitlePrachin Jain Smaraka Mumbai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1982
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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