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________________ राजपूताना । [ १४५. चौमुखी मूर्ति है, शेप खाली हैं। लेख सं. १३५६ और १३९१ के. हैं। यहां पार्श्वनाथकी मूर्ति होनी चाहिये । यह दिगम्बर जैनोंका है। मंडपमें एक मुर्ति श्वे० रक्खी है जो कहीं अन्यत्र से लाई गई है । इसपर राजा कुंभकरण व खरतरगच्छका लेख है। एक वेदीपर एक पापाण है जिसके मध्यमें एक ध्यानाकार जिन मूर्ति है, ऊपर व अगलबगल शेप तीर्थकरोंकी मूर्तियां हैं । A. P. R. of W. India 1906 में यहां के कुछ लेखों की नकल दी है । नं. २२४३में - ३ लेख हैं (१) ओं संवत् १३९१ वर्षे चैत्र चढ़ी ४ रवौ देवश्री पार्श्वनाथाय श्री मूलसंघ आचार्य शुभचंद्र चोद्यागान्वये गुणधरपुत्र कोल्हा केल्हा प्रभृति आलाकं जीर्णोद्धारकं कारायितम् । (२) सं १३५६ वर्ष आषाढ़ वदी १३ गोरईसा तेड़ालसुत संघपति वासदेवसंघरायेण नागदहती श्रीपार्श्वनाथ | (३) १ - नागहरादपुरे राणा श्री कुंभकरण राज्ये । २ - आदिनाथ विम्बस्य परिकरः कारितः ३ - प्रतिष्टितः श्री खरतरगच्छेय श्रीमति वर्द्धनसूरि४ - भिः उत्कीर्णवम् सूत्रधार धरणाकेण श्रीः न. २२४२ में--सं. १४८६ वर्षे श्रावण सुदी ९ शनौ राणा श्री मोकराज्ये श्री पार्श्वनाथ मंदिरमें पोड़वाड़ जैन बनियेने देवकुलिका बनवाई | (११) पुर - उदयपुरसे उत्तर पूर्व ७२ मील, जिला मिलबाड़ा | भिलवाड़ा स्टेशनसे पश्चिम ७ मील । यह विक्रमादित्यसे ૧૦
SR No.010443
Book TitlePrachin Jain Smarak Madhyaprant Madhya Bharat Rajuputana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages185
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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