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________________ ८४] प्राचीन जैन स्मारका आदि विद्वानोंपर आक्रमण किया था। यह शास्त्र समुद्रके पारगामी थे। उनके शिष्य श्री विजयकीर्ति थे जो अपने गुरुके चरणकमलकी आरधनाके पुण्यसे निर्मल बुद्धिके धारी थे व शुद्ध रत्नत्रयके पालक थे इन्होंने ही रत्नोंकी मालाके समान इस प्रशतिको लिखा है। लाइन ४८ से ५३ तक श्री जिन मंदिरके निर्माताओंका वर्णन है। श्री विजयकीर्ति महाराजसे परमागमका सारभूत उपदेश पाकर कि यह लल्ली, बंधु सुहृदका समागम व यह आयु या शरीर नाशवंत हैं । इस धर्मस्थानके रचनेका प्रारंभ सजन दाहडने और उनके साथी विवेकवान कूकेक, पुण्यात्मा मुर्पट, शुद्ध व धर्म कर्ममें निपुण देवधर व मद्दिचन्द व अन्य चतुर श्रावकोंने किया। लक्ष्मण व जिनभक्त गोष्ठिकने भी मदद दी। इन्होंने अमृतके समान वेत जिन मंदिर उच्च शिखर सहित तीन जगतको आनंद देनेवाला सुन्दर बनवाया । लाइन १४ से ६० तक गद्यमें महाराज विक्रमसिंहने जो जिनमंदिरको दान किया उसका कथन है । इन जिन मंदिरके रक्षण, पूजन, सुधार व जीर्णोद्वारके लिये महाराजाधिराज श्री विक्रमसिंहने अपने दिलमें पुण्य राशिक अमर्याद प्रसारको धारणकर हरएक अन्नकी गोणीपर एक विंशोपक नामका कर विठाया व महाचक्र ग्राममें चारगोणी गेहूं बोने योग्य खेत तथा रजनन्हक पूर्व एक वाग कूपसहित प्रदान किया तथा दीपनादिक लिये कुछ बड़े तलके प्रदान किये और आज्ञा की कि आगके राजा दरावर इस आनाको माने किजिसकी भूमि है उसीका उसको फल मिलना चाहिये। लाइन में प्रशस्ति लिखनेवाले
SR No.010443
Book TitlePrachin Jain Smarak Madhyaprant Madhya Bharat Rajuputana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages185
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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