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________________ साधु हरिकेश । इटानेका उद्यम करने लगे। बाहरी नृशसता ! तेरा आसरापर सत्यामी वीर हरिकेशको वह भी न डिगा सकी, वह बडग रहे । 10] (५) राजकुमारी भद्रा म० हरिकेशके चरणोंमें मस्तक नमागे बेटी कह रही थी- "नाथ ! मुझ अपराधिनीको क्षमा कीजिये। मैं धर्मके मर्मको न समझ सकी थी, आप दीनोद्धारक हैं। आपने अपने प्राणोंकी बाजी लगाकर इन पशुओंकी रक्षा की है और हम अमका उद्धार किया है। भले ही बड़े घरोंमें हमने जन्म लिया था परन्तु हमारे हाथ निरपराध प्राणियों के खून से लाल होरहे थे। हम महान् पापी बे, उसपर भी हमें अपनी जातिका बड़ा भारी अभिमान था । आपने उस अभिमान के शतखण्ड करके हमें सुबुद्धि प्रदान की है। चाण्डाक नहीं, आप परमपूज्य महात्मा है, हम सब आपकी शरणमें हैं। प्रभो ! क्षमा कीजिए हमारे अपराध और हमें कल्याण मार्ग में लगाइए।" म० हरिकेश बोले- “भद्रा ! तू धर्मात्मा है, मेरा कुछ भी किसीने नहीं बिगाड़ा है। धर्म ही एक शरण है। माओ, उसकी ater छायामे बैठो और अपना तथा प्रत्येक प्राणीका मला करो।" कहना न होगा कि राजकुमारी भद्रा और उसके साथियनि म० हरिकेशके निकट धर्मकी दीक्षा ली ! अब वे सब जातिमदलेपरे थे और हर किसीसे कहते थे - 'पर्येण सत्येन तपसा संयमेन च । मातंगऋऋषिर्मतः शुद्धिं न शुद्धिस्तीर्थयात्रया
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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