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________________ . . . . . . . . . . . . . गये, परन्तु अमिभूति आहारचर्याके लिये गये | उन्हें यह दुर्गधा दृष्टि पड़ गई। यपि उस चाण्डाल पुत्रीकी देहसे दुर्गध आरही थी उसके शरीरसे कोढ़ चुरहा था और मक्खिया बहद मिनभिना ही थी, फिर भी अमित दयाक आगार मुनि अमिभतिने उससे घृणा नहीं की। करणाका श्रोत उनके हृदयसे ऐसा उठा कि वह आखोंसे बाहर वह निकला। किन्तु दुसरेकी करनीको कोई मेटे कैसे अपनी करनी अपने साथ ' हा उस जन्माध चाण्डालीमें यह सामर्थ्य थी कि वह उस करनीपर अपनी नई करनमि पानी फेर दे। जानते हो श्रेणिक | वह च ण्डाली उस दीनदशामें - भाग्य थी अवश्य परन्तु उसकी आत्मामें अनन्तशक्ति विद्यमान थी। आ मा अपने स्वभावसे, शक्तिमे कभी भी क्मिी भी दशामें न्युन नहीं होसक्ता । यह दूसरी बात है कि प्रकृति पुलक प्राबल्यमें कालविशषक लिए यह हीनप्रभ होजाय और नब अपर शौयको यक्त न कर सक' किन्तु निश्चय जानो कि उसकी शक्ति उसका वीय तब भी अक्षुण्ण रहता है। अमिभूति जन्माध चाण्ड लीकी गत सोचने २ आचार्य मर्यमित्रक पास पहुचे और उनमे चाण्ड लागी बात कही सूर्यमित्र विशष नी ये माघ लाण्ट लीका अन्तर दीख गया। वह उसका निर्मक विय जान गय ' वह बोले-'यह ससार दुर्निवार है। प्रणी इममें न हुअ तरह तम्हके रूप धारण करता है। अ० २ काम करके स लोक्में वह भला दीखता है। वही प्राणी यदि खोटी मगतिमें का बुर २ काम करता है तो लोक्में सब उसे बुरा कहने और वह देखने में भी बुरा होजाता है।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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