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________________ wasswoma nsamunanamanmamimusswowowo man. SusuuuuuuuN पवितोदारक जैनपर्य। * उपरान्त लोगोंने किसी सर्वज्ञ-जीवन्मुक्त परमात्मासे सुना कि चण्ड स्वर्ग में देव हुआ है । यह उसकी धर्मपरायणताका मीठा फल था । जन्मका चाहाल भी अहिंसा धर्मका पालन करके स्वर्गका देवता हुमा जानकर लोगोंने जातिमदको एकदम छोड़ दियागुणोंकी उपासना करनेका महत्व उन्होंने जान लिया । गुण ही पूज्य है -गुणोंसे रह राव बनता है । गुणहीन कुलीनको कौन पूछे ? कोगोंने यह भी देखा था कि चण्डका पुत्र अर्जुन भी उसीके सहश धर्म-वीर है। पिताको आगमें जलते हुये देखकर भी उसके मुंहसे न नो एक 'आह' निकली, और न आखसे एक आंसू टपका! उमका हृदय आत्मगौरवसे ओतप्रोत था । जैसा पिता वैसा ही उसका वह पुत्र था। अपने जीवनभर उमने अहिंसाधर्मका पूरा पालन किया था। वंशगत आजीविकाको--उदर धर्मको परमार्थके लिये छोड़ देनेका साहस उनही जैसे महान वीरमें था। पापी पेटके लिये तो न जाने कितने तिलकधारी धर्मका खून कर अलते है । और वे अपनेको चाण्डालमे श्रेष्ठ बतलाने का भी दम्भ करते नहीं हिचकते। अर्जुनने अपनी आजीविकाकी परवा नहीं की। उसका पिता चण्ड उसे यही तो स्वयं नमूना बनकर बता गया था। वह महिंसक वीर रहा और उसने अपने जीवनका अन्त भी एक वीरकी भाति किया । यह कायरोंकी तरह खाट पर नहीं मरा । पिताकी तरह उसने मी समाधिस्थ हो इस नश्वर शरीरको छोड़ा था और स्वर्ग जा देवता हुआ था।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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