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________________ ५४ ] 101 पतितोद्धारक जैनधर्म । 140 मेरी उनकी निस्बत क्या ? लेकिन बात रंगाकी है ! उसको कैसे हरगिज नहीं । मैं अपनी दूंगा-दिल दुःखना तो दूर मनाऊं ? मेरे रहते उसे कष्ट होवे ? बिसात उसकी अंगली भी नहीं दुःखने रहा ! उस रोज उस नंगे भिखमंगे को देखकर वह डर गई । मैं यह कैसे देख सक्ता था । मैंने उस भिखमंगेका सर ही घड़से अलग कर दिया। मैं रंभाको अवश्य प्रसन करूंगा । राजा है तो क्या ? उसे मिलता तो धन प्रजामे ही है। वह बैठा-बैठा गुलछर्रे उड़ाये और हम मुंह ताका करें ! कहीं लड़ाई छिड़े तो जान हथेली पर धर कर लड़ने हम जायें और राजा सा० महलमें पडे-पडे मौज मारे ! यह नहीं होनेका ! मैं लाऊंगा राजाके गहने और पहनाऊंगा अपनी प्यारी रंभाको आजही लो यह मैं करके मानूंगा । " } राजा बसुपालकी सेनाका एक मावुक सिपाही यह बैठा सोच रहा था । राजाके अंगरक्षकोंमें उसकी तैनाती हुई थी । वह जवान था और कामुक भी। अपनी प्रियतमाको प्रसन्न करनेके लिये उसने राजमहल में चोरी करनेकी ठानी। रात आते ही वह मौका पाकर महलोंमें जा घुसा और काखों रुपयेका माल बटोर कर अपनी प्रियतमाको उसने जा सौंपा। रंभा इस अपार धनको पाकर फूले अंब न समाई, किन्तु उसे यह न मालूम था कि यह पापका धन उसके जीवनाधारको ले बैठेगा । बात भी यही हुई। कोतवालने उसके यहांसे सारा धन बरामद किया | राज दरबारसे उसे फांसीका दण्ड मिला । इन्द्रिय वासनायें होनेका कटुफल उसे चखना पड़ा। अब रंभा भी पछताती थी और सिपाही भी, पर अब होता क्या ? चिड़ियां तो खेतको चुग गई थीं।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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