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________________ पतितोद्धारक धर्म । gan ८ क्यों न प्रकट होता राजा उनके चरणोंमें बैठ कर धर्मामृत पान करनेके लिये उनकी ओर निहारने लगा । ५० ] किन्तु यह क्या ? माधु महाराज तो उनकी ओर देख भी नहीं रहे थे । राजाको आश्चर्य हुआ । आखिर बात क्या है ? माधुकी - दृष्टिके साथ राजाने भी अपनी दृष्टि दौड़ाई। उन्होंने देखा वहां एक तिलकधारी द्विज एक दीन मानवको ठोक रहे है । चिल्लाहट में उन्होंने सुना भी कि 'देखो, कम्बख्त अछूत चाण्डाल कहा आमग-द्विजोंकी समामें इसका क्या काम पीटो-मागे - भगाओ यहां से सालेको !” राजाको परिस्थिति समझने में देर न लगो । उनका इशारा पाने ही सियोन उन झगडालुओं को जा पकडा । राजाने सामने वे दोनों लाकर उपस्थित किये गये । झगड़ालुओंमें एक नंग-धडंग काला-कलूटा भयानक आहतिका मनुष्य था । राजाने देखते ही उसे पहचान लिया । वह शाही जल्लाद था । लोग उसे चाण्डालचड कहते थे । राजाके सामने बेचारा थर-थर काप रहा था। दुसरा गोरा-पीला तिलकधारी एक द्विजपुत्र था । राजाने कहा- 'चण्ड ! तुम्हारी यह शरारत !" 1 - चण्ड पर मनोगत हुआ। वह कुछ बोले ही कि द्विजपुत्र दाल भातमें मुमरचंदकी तरह बात काट कर आ धमका। वह बोला'देखिये न इमनीचकी धृष्टता ! यह महान् अछूत और इसकी यह हिमाकन- ब्राह्मणोंकी बराबरी करने चला है। धर्म सभ में आया है बदमाश ।' द्विजपुत्रका यह जातिमद देखकर हितोपदेशी वह साधु महाराज बोले-'वत्स ! क्या कहा ? धर्ममें जातिगत उच्च ना नीचता कैसी ?' ब्रह्मण सिटपिटा गया और उसमें बोला- 'महात्मन् ! लोक में -
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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