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________________ यमपाल चाण्डाका - 100140IHOTIBHSHN . B RIDDIISISROHIUDIAIIIIII. . . Hna.u.tuA यमपाल चाण्डाल।* पोदनपुरके बाहर चाण्डालोंकी पल्ली थी। उन चाण्डालोंके सरदारका नाम यमपाल था। यमपाल अपनी कुल परम्परीण आजीविकामें निष्णात था। वह बिना किसी झिझक और सोच विचार के सैकड़ों आदमियों को तलवारके घाट उतार चुका था । यह उसका धंधा था और इस धंधेमें वह जलप्रवाहकी तरह वहा चला जा रहा था। उसने कभी क्षणभरको यह न सोचा कि वह महापाप कर रहा था। मचमुच वह महा पापी था। उसके हाथ ही नहीं हृदय भी खूनसे रंगा हुआ पूरा हिंस्र था। मनुष्योंको मारकर वह अपनी आजीविका चलाता था। आह ! कितनी भीषणता? यह उसे पता न था। जीवन क्षणिक है-बिजलीकी चमक है। इस सत्यकी ओर यमपालका ध्यान कभी न गया ! और न उसने यह कभी सोचा कि जितना उसे अपना जीवन प्यारा है उतना ही प्रत्येक प्राणीको भी वह प्यारा है । कच्चे धागेसे बंधी हुई यमकी तलवार उसके सिरपर लटक रही है, यह उसने कभी न देखा । कोई दिखाता तो भी शायद वह न देख पाता ! किन्तु प्रकृतिको उसकी इस दशा पर दया आ गई-वह उसके साथ एक नटखटी कर बैठी। - 'माराधना कथाकोष' तथा 'नकरण्ड श्रा०' संस्कृत टीकामें वर्णित कथाके माधारसे।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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