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________________ . . MINSuarte misuaamanandHetananeustauanaunusuman iNITIRRIIIIIIIIIILL पतितोलारक जैनधर्म। जिन भवन " नामसे प्रसिद्ध है । चालुक्य वंशी राजा अम्म द्वितीयके कलचुम्बाके दानपत्रसे पता चलता है कि चामेक वेश्या जैन धर्मकी परम उपासिका थी। दानपत्रमें उसे राजाकी अनन्यतम प्रियतमा और वेश्याओंके मुखसरोजोंके लिये सूर्य तथा जैन सिद्धांतसागरको पूर्ण प्रवाहित करनेके लिये चन्द्रमा समान लिखा है। वह बड़ी विदुषी भी थी। सर्वलोकाश्रय जिनभवनके लिये उसने मूल. संपके अट्टकलि गच्छीय मुनि अर्हनन्दिको दान दिया था, जिससे उसकी खूब प्रशंसा हुई थी। ये ऐतिहासिक उदाहरण जैन धर्मको स्पष्टतया पतितोद्धारक घोषित करते हैं ! जैनधर्मका पालन प्रत्येक देश, प्रत्येक जाति और प्रत्येक परिस्थितिका मनुष्य कर सकता है। चाहे उपसंहार। कोई आर्य हो या अनार्य, सदाचारी हो या दुराचारी, पुण्यात्मा हो या पापात्मा-वह इस धर्मका पालन कर अपनेको जगत् पुज्य बना सक्ता है। लोकमान्य मर्यादाके नाश होनेका भय यहांपर वृथा है; क्योकि लोक मर्यादा-खानपानादिकी छुआछूतका विधान धर्मके आश्रित है। भौर जब धर्मका पालनेवाला हर कोई होगा तो वह प्राकृत सङ्गत है कि लोकमर्यादाकी भी अभिवृद्धि हो-खान-पान, असन-वसन आदिकी शुद्धि होना तब अनिवार्य होगा। जैन धर्मको धारण करके अनेक पतित जीव गतकालमें अपना आत्मोत्कर्ष कर चुके हैं उनकी कुछ कथायें आगे दीजाती हैं: १-पीफिया इंडिका, मा० ७ पृ० १८२ ।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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