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________________ पतितोद्धारक जैनधर्म | [ १५ Indian कुछ लोगोंका खयाल है कि धर्मको ऊपर के तीन वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही धारण कर सक्ते हैं । शूद्रादि भी धर्मका पालन शूद्र और चांडाल तथा म्लेच्छ उसको कर सक्ते हैं ! धारण करनेके अधिकारी नहीं हैं, किंतु उनकी यह मान्यता निराधार है। जैन धर्म में जातिगत उच्चता-नीचताको कोई स्थान नहीं है, यह पहले ही लिखा जा चुका है। फिर भी उक्त विचारकी निस्सारता प्रकट करनेके लिये शूद्रादिको धर्माराधनाका स्पष्ट आज्ञाप्रधान करनेवाले शास्त्रोल्लेख हम यहा उपस्थित करते हैं। देखिये, 'नीति वाक्या'मृत' में श्री सोमदेवाचार्य लिखते है कि :-- -didasainindian “आचाराऽनवद्यत्वं शुचिरूपस्कारः शरीरशुद्धिश्व करोवि शूद्रानपि देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान् । ” अर्थात् -" मद्य मासादिकके त्यागरूप आचारकी निर्दोषता, गृह पात्रादिककी पवित्रता और नित्य स्नानादिके द्वारा शरीर शुद्धिये तीनों प्रवृत्तियां शूद्रोंको भी देव, द्विजाति और तपस्वियोंके परिकमके योग्य बना देती है । " श्री पंडितप्रबर आशाधरजी इस विषयको और भी स्पष्ट करते हुए लिखते हैं:'शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शुध्याऽस्तु तादृशः । जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ यात्मास्ति धर्ममाक || २|२२|| सभी मृत । उपकरण जिसके शुद्ध चरण पवित्र हो और नित्य अर्थात् - "आसन और बर्तन हो, मद्यमांसादिके त्यागले जिसका
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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