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________________ पवितोद्धारक जैनधर्म । [१३ mindiane SUBDraginican 'णवि देहो बंदिज्जइ नवि व कुलो नवि य जाइ संजुत्तो । को बंदिय गुणहीणो ण हुं सबणा णेय साबओ होइ ॥ २७॥' अर्थात- 'देहकी वंदना नहीं होती और न कुलको कोई पूजता हैं । न ऊंची जातिका होनेसे ही कोई वंदनीय होता है । गुणहीन की कौन वंदना करे ? सचमुच गुणोंके विना न कोई श्रावक है और न कोई मुनि है।' श्री समंतभद्राचार्य इसीलिये एक चाण्डालको सम्यग्दर्शन- सत् श्रद्धान से युक्त होनेपर 'देव' कहकर पुकारते हैं: - मानने वालोंकी बातको निस्सार प्रतिपादन किया है । जन्मसे जातीयताके पक्षपाती जिस रक्त शुद्धिके द्वारा जाति-कुल अथवा गोत्रशुद्धिकी डुगडुगी पीटा करते हैं उसीकी निस्सारताको घोषित किया है और यह बताया है कि वह अनादि प्रवाह में बन ही नहीं सकती - विना किसी मिलावट के अक्षुण्ण रह ही नहीं सकती । इसी कारण आचार्य महाराजने कहा है कि: 6 न जातिमात्रतो धर्माभ्यते देहधारिभिः । सत्यशौचतपःशीलध्यानस्वाध्यायवर्जितः ॥ २३ ॥' अर्थात् - ' जो लोग सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान और स्वाध्यायसे रहित हैं उन्हें जाति मात्र से महज किसी ऊँची जातिमें जन्म ले लेने से धर्मका कोई लाभ नहीं होसकता है।' श्री रविषेणाचार्य भी जन्मसे जाति माननेकी भ्रातिका निरसन निम्न श्लोकों द्वारा करते हैं: चातुर्विध्य च यज्जान्या तन्न युक्तमहेतुकं । ज्ञानं देहविशेषस्य न च शूद्रादिसम्भवात् ॥ ११-१९४॥दृश्यते जातिभेदस्तु यत्र तत्रास्य सम्भवः । मनुष्यहस्तिवाकेयगौवा जिप्रभृतौ यथा ॥ १९५ ॥ ८८
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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