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________________ IMUDHIRUSHUDDHINDUINDIAHSH A RIUSINHIMALHOTISTIL DISHIDI0Uope INITMINny पतितोद्धारक जनधर्म। अवश्य प्राप्त करेगा। उसका पतित जीवन नष्ट हो जायगा। लोकमें प्रत्यक्ष अनेक चारित्र हीन मनुष्य समयानुसार धर्मात्मा बनते दृष्टि पड़ते हैं। अतएव पतितका उद्धार होना स्वाभाविक है। जैनधर्म पतितोदारक एक वैज्ञानिक विधानके सिवाय और कुछ नहीं है । उसकी शिक्षा यही सिखाती कि अपने पदसे भ्रष्ट अथवा पतित हुआ जीव संसारसे मुक्त होकर अपना स्वाभाविक पद प्राप्त करे । और इसके सुलभ प्रचारके लिये वह अपने धर्म प्रचारकोंके निकट मनुष्य ही नहीं पशुओं तकके आने और धर्मामृत पान करनेकी उदारता रखता है, क्योंकि विना संत-समागमके सन्मार्ग मिलना दुर्लभ है । इसीलिये भगवान महावीरका यह उपदेश है कि -- 'सवणे नाणे विण्णाणे, पञ्चक्खाणे य संजमे । अणाहए तबे चेव बोदाणे, अकिरिया सिद्धी ॥२॥५॥ भगवती' अर्थात्-"ज्ञानीजनोंके संसर्गमें आनेसे धर्म श्रवण होता है। धर्म श्रवणसे ज्ञान होता है, ज्ञानसे विज्ञान होता है, विज्ञानसे दुराचारका त्याग होता है। और इस त्यागसे संयमी जीवन बनता है। संयमी जीवनसे जीव अनावी होता है और अनावी होनेसे तप-. वान् होता है । तपवान् होनेसे पूर्व संचित कर्मोका नाश होता है और कर्मोका नाश होनेसे जीव सावध क्रिया रहित होता है । बस, सावध क्रिया रहित होनेसे उमे सिद्धि- मुक्ति प्राप्त होती है।" एक पतित जीव धर्म-जैनधर्मका ज्ञान पाकर परम पूज्य मुक्त आत्मा हो जाता है।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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