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________________ maanvantantramarshuRIOHarsatmananumaanmikvan पतितोदारक जैनधर्म। यह विशेषता उसकी अपनी है और यही कारण है कि उसकी छत्रछायामें आकर प्रत्येक प्राणी अभय होजाता है । जैनाचार्योने यह स्पष्ट घोषित किया है कि: 'एस धम्ने धुवे णितए, सासए जिणदेसिए। सिदा सिजति चाणणं, सिझिसत तहावरे ॥१७॥१६॥ अर्थात्-'जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ यह धर्म ध्रुव है-नित्य है-शाश्वत् है । इस धर्मके द्वारा अनंत जीव भूतकालमें सिद्ध हुए हैं और वर्तमान कालमें सिद्ध होरहे है, उसी तरह भविष्यत् कालमें भी सिद्ध होंगे।' श्री कुंदकुन्दाचार्य कहते है कि'पयलयमाण कसाओ पयलियमिच्छत्त मोह समचिंती। पावई तिहुवण सारं वोही जिणसासणे जीवो ।। ७८॥' भावार्थ-'जिनशासनकी शरणमें आकर जीव मात्र तीनलोकमें सारभूत सुबोधि-विवेक नेत्रको पाजाता है और मानकषाबसे प्रगलित, कुलीन, अकुलीनके घमंडसे निकलकर, मिथ्याभावको छोड़कर मोहसे नाता तोड लेता है।' अर्थात् जैन धर्मको पाकर जीवमात्र पापासे एट जाता है। इस तरह जैनाचार्य किसी खास जाति या वर्गको ही धर्म पालनेका अधिकार नहीं देते। वह तो कहते हैं कि 'मन, पवन, कायसे सभी जीव धर्म धारण कर सकते हैं।' (मनोवाक्काय बर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तव.।'-श्रीसोमदेवसरिः) और यह प्रांत सुसंगत है।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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