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________________ Ro...HNILIPI...I.irni. ... .n um चानक वेश्या। "मना ! बुरा आदमी बुरे बादमीकी प्रशंसा करता है, लोभी दिल खोलकर अपने जैसे कंजुसको प्यार करता है, जैसे सूअर कीचड़को प्यार करता है और इनको नहीं पूंछता।" * [३] चामेक वेश्या मनुष्य प्रकृति सब ठौर एकसी है। वह स्त्री पुरुष, काले-गोरे, लंबे बौनेकी अपेक्षा नहीं रखती। मनुष्य मात्रकी यह इच्छा रहती है कि वह सुखी रहे और लोक.में उसकी प्रतिष्ठा हो। एक शीलचान् पुरुष और घीकी भी यही भावना होती है और एक चारित्र. हीन वेश्याकी भी । वेश्यायें भी दुखी और अपमानजनक जीवन विताना नहीं चाहती । पापी पेट और दुश्चरित्र मनुष्योंकी नृशंसता उन्हें अपना रूप और योवन बंचन के लिये लाचार कर देता है। वैमे भला कौन अपने शरीको उस आदमीको छूने देगा जिसे उसकी आत्मा पास बिठाने के लिये भी तैयार नहीं होता। यह मनुष्य प्रकृति ही अनेक वेश्यायोंको एक पुरुषके साथ जीवन विताने अथवा विवाह करने के लिये उ । बना देती है और वे वैसा करती भी हैं । दक्षिण भारतकी एक वे यांने ऐमा ही किया था। वह पक पुरुष व्रती होकर ऋषियों द । प्रशंमित हुई थी ! कहा एक वेश्या नारकी जीवन और कहां धर्मात्माकी पवित्रता ! किन्तु मनु * 'त्यागभूमे' स सस्कृत उद्ध ण । x पी० इंडिका, भा० ७ पृ० १८२ दिये दान पत्रके भाधारसे।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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