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________________ पतितोद्धारक जैनधर्म । १८२ J " हे गौतम ! वह तो अश्वतर (खच्चर) होता है। यहां भेद देखता हूं, उन दूसरोंमें कुछ भेद नहीं देखता ।" "भाश्वलायन ! मानलो दो माणवक जमुवे भाई हों। एक अध्ययन करनेवाला और उपनीत है; दूसरा अन् अध्यापक और अन् उपनीत है । श्राद्ध यज्ञ या पाहुनाईमें ब्राह्मण किसको पहले भोजन करायेंगे ? " GHEUNzindadaiendan " हे गौतम! जो वह माणवक अध्यापक व उपनीत है, उसीको प्रथम भोजन करायेंगे । अनु अध्यापक अन्उपनीतको देने से क्या महा फल होगा ?" “आश्वलायन ! तो फिर जातिका क्या महत्व रहा ! गुण ही पूज्य रहे । जानते हो उपालीको, वह अपने गुणोंके कारण विनयघरोंमें प्रमुख है ।" हाथ कंगन को आरसी क्या करे ? बेचारा आश्वलायन यह सब कुछ देख सुनकर चुप होरहा । म० बुद्ध फिर बोले: " 'पूर्वकालमें ब्राह्मण ऋषियोंको जात्यभिमानने जब घेरा तब असित देवऋषिने वृषलरूप धारण करके उनका मिथ्याभाव छुड़ाया था । ब्राह्मणोंसे असित देवल ऋषिने कहा कि तुम ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण समझते हो किन्तु जानते हो क्या कि ब्राह्मण जननी ब्राह्मणके पास गई, अब्राह्मणके पास नहीं ? ब्राह्मणोंने नकार में उत्तर दिया । सब फिर देवल ऋषिने उनसे पूछा कि क्या आप जानते हैं कि ब्राह्मणमाताकी माता सात पीढ़ीतक मातामह युगल (नानी) ब्राह्मण हीके पास गई, अवाक्षण के पास नहीं! त्राह्मणोंने उत्तर दिया कि नहीं
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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