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________________ MAINTAILIOnlineDDOM. .naiaIIIMIRIDIDIHATIHIDAI १९८] पतितोद्धारक जैनधर्म । __ श्रीगुप्तने अपनी आयु सात दिन शेष रही देखकर विशेष तपश्चरण और ज्ञानागधन किया और शुभपरिणामोंसे शरीर त्यागकर वह स्वर्गमें देव हुआ। ज्ञानियोका कहना है कि आगे वह सिद्ध परमात्मा होगा ! लोक उमकी वन्दना करेगा। चिलाति कुमार। 'अरे, यह कौन बला है ?' 'कलसा अटका तो कहीं नहीं है। किसीने पकड़ रक्खा है। मालूम होता है, कोई कुयेमें गिर पड़ा है।' • खींचो-खींचो !' 'भाई. उदरो। मैं अभी तुम्हारे निकलवानेका प्रबंध करती हूं।' यह कहती हुई युवती तिलका जल्दी जल्दी एक ओरको चली गई। वह भीलोंके सरदारकी कन्या थी। राजगृहके पासमें कहीं गहन वनके बीच उन भीलोंकी पल्ली थी। एक तरह दुनियांमे बिल्कुल न्यारे वे वहा बस रहे थे। तीरतरकससे युक्त वे हरसमय शिकारकी फिराक में रहते थे। यही उनका धन्दा था। बापदादोंसे उसको उन्होंने सीखा था-वे और कुछ अधिक नहीं जानते थे । तिलकाका बाप उन भीलोंका सरदार था। तिलका दौड़ी दौड़ी गई x बाराधना कथाकोषकी मूल कथाके बाबारणे।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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