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________________ १६६ ] पतितोद्धारक जैनधर्म । 'गुणैरिह स्थानच्युतस्यापि जायते महिमा महान । अपि भृष्टं तरोः पुष्पम् न कैः शिरसि धार्यते ।।" गुणोंके कारण मनुष्य महान् महिमाको प्राप्त होता है, यद्यपि वह स्थानसे च्युत भले ही हुआ हो। पेड़से गिरी हुई ( सुगंधमय ) कलीको कौन नहीं अपने सिरपर धारण करता ? सो भाई, धर्ममार्ग च्युत होनेपर भी यदि तुम गुणोंको अपनाओगे-धर्मकी आराधना करोगे तो निस्सन्देह तुम्हारी महिमा अपार होगी ' Musicianainai------ श्री ० - 'प्रभो ! मुझे महिमा नहीं, आत्मकल्याणकी वाञ्छा है।' O मुनि- 'बत्स, तुम निकट भव्य हो ! आओ, अपनी काया पलट करो, त्यागो इस पापभेषको । बनावट ही तो पाप हो । प्रकृत रूपमें रहो और अपने आत्माके प्रकृतभावका आराधन कगे, तुम्हारा कल्याण होगा ।' श्रीगुप्त मुनिराजके निकट कपड़े लत्ते त्यागकर साधु होगया । उसने अपने हृदयको भी शान्त और उदार बना लिया । उसने खूब तप तपा, जिससे उसके पापमळ घुल गये और वह एक बड़ा ज्ञानी महात्मा बन गया ! गुरु महाराजकी उदारताने एक हत्यारे ज्वारीको महात्मा बना दिया ! धन्य हैं पतितपावन गुरु और धन्य है उनका धर्म ! ( ६ ) वैजयन्तीमें धूम मच गई कि एक बड़े पहुंचे हुये धर्मात्मा साधु आकर राज्योद्यानमें ठहरे हैं। वह बड़े ज्ञानी हैं और जो जाता है उनके दर्शन पाकर निहाल होजाता है। सेठ महीघरने भी साज महाराजकी यह प्रशंसा सुनी। वह भी उनके दर्शन करने गये ।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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