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________________ १५२ ] पतितोद्धारक जैनधर्म राजा मधु राजमहल में निमंत्रित हुए। वीरसेनने उत्तम अशनपान द्वारा उन्हें खूब ही संतुष्ट किया। वीरसेनकी रानी चंद्रामाने मधुको सोने लगे बीड़े भेंट किये। राजा उन्हें पावर स्नेहातिरेक से विळ होगया | चंद्राभा यथानाम तथा गुण थी । उसकी मुखश्री चंद्रमा को भी चिनौती देती थी मधु एक टक उसकी ओर निहारता रह गया ! 1 aananirashmiertainmen -----------Oper ( २ } 3 शत्रुको विज्य करके राजा मधु अयोध्या वापस आये है यह समाचार बिजली की तरह नगरके आबाल वृद्ध जनता में फैल गया । सबने अपने उत्साहको प्रकट किया । नगरको खूब सजाया और दिल खोलकर विजयी सेना का स्वागत किया । अयोध्या में कई दिनांक विजयोत्सव होता रहा, किन्तु इस उत्सव में गजा मधुने नगण्य भाग लिया । वह दोजके चन्द्रमाकी तरह कदाचित् ही कहीं दिख जाते थे । सो भी वह मुख ग्लान और चिन्तायुक्त दिखते थे। प्रजाने समझा यह युद्धश्रमका परिणाम है; किन्तु चतुर मंत्रियोंने कुछ और ही अर्थ निकाला । वह भी अपनी मंत्रणा में संलम होगये । . • 7 आखिर मंत्रियोंकी आशङ्का ठीक निकली। राजा चन्द्राभाको भृला नहीं । उसने मंत्रियोंमे कहा - ' अब और कितने दिन मुझे वियोग ज्वालामें जलाओगे मंत्रीगण चुप थे 1 उनमें से एकने साहस करके कहा-' प्रभो ! हमें आपकी क्षेम ही इष्ट है, किन्तु नाथ ! ऐसा कोई काम भी उतावली में नहीं होना चाहिये, जिससे आपका अपयश हो और प्रजा विरुद्ध होजाय ! '
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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