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________________ ऋषि कफ । [ १४९ IT' स्वादेन्द्रियको जीतने की वह मेरी महान् साधना आज कहां गई ? अरे ! अरे ! यह क्या हुआ ? मुझसा पापी और नीच कौन होगा ? उगालका भक्षण भला कौन करेगा ? उठो, चलो, छोड़ो इस स्थानको! यह मेरे पतन, मेरे कलङ्कका जीताजागता चिह्न है । धन्य है यह पथक ! इसने मेरा बड़ा उपकार किया !" इस विचार के साथ ही शैलक वहांसे विदा होकर पथक के साथ अन्यत्र विहार कर गये ! SIDDH IN E पुण्डरीक पर्वतपर शुकाचार्य तप माढ़े बैठे थे। शैलकऋषि पंथकके साथ वहां जाकर उनके चरणोंमें गिर पड़े। बोले-'प्रभो ! मुझ पतितको उबारिये !" शुकाचार्य मुस्करा दिये। उन्होंने कहा- 'वत्स ! विषय दुर्निचार है, इनके मोहमें फंसना कुछ अनोखा नहीं है। अनोखापन तो इनके चंगुल से छूटने में है । तुम शरीरके मोहमें पड़कर मद्यासक्त हो गये; किन्तु अपने इस कुकृत्यपर तुम्हें ग्लानि है, यही विशेषता है।' शैलक- 'नाथ ! मैं महापापी हूं, मेरा उद्धार कीजिये ।' शुक० - ' शैलक ! अब तुम पापी नहीं, पुण्यात्मा हो ! बशिष्ट मुनिकी बात याद नहीं ? वह भी मद्यमांसादि भक्षणमें आनन्द लेता था; किन्तु धर्मवार्ताने उसके हृदयको पकट दिया। मद्यमांसादिसे उसे घृणा होगई, वह सच्चा साधु होगया । हृदयकी शुद्धि ही मोक्षमार्ग आवश्यक है । हृदयशुद्धिके विना जपतप आदि सभी व्यर्थ हैं।' शैलक- 'गुरुवर्य ! मुझे वही साधन बताइये जिससे मेरा हृदय और भी पवित्र बन सके !"
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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