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________________ ANDIRamayahakamananenanonOnelioonsumagnantitatistianeriosino.00ailsinilaaisilsinaIRONI ११९ पतितोला । का०-'पर क्या ? पाण्डुका गर्भ है-बड़मे दो इसे । तेजस्वी पुत्र जनना ।' कु०-'छि: ! दुनियां हँसेगी और कहेगी-'कुमारी कन्याने बेटा जना।' यह अपमान कैसे सहन होगा ?' । धा०- तो क्या हिसा करके पाप कमाओगी ?' कु०-- न मां. यह मैं कब करती हूँ ।' धा०-' नहीं कहती, तो धीरज धरो। भगवान सब अच्छा करेंगे !! कुन्ती एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर क्षितिजो अनन्त रूपको निहारने लगी। " अरे देखो तो, गंगाके प्रवाहमें वा सोनेसा चमकता क्या मटका वहा जारहा है ।" मल्लाने अपनी स्त्रीके मुखमे यह शब्द सुनते ही गंगाकी शरण ली । गंग.की प्रचण्ड तरेंगे थीं और मल्लाह उनमें अठखेलिया कर रहा थ । दखते ही देखते वह सोनेसा चमकता मटका वह पकड़ लाया । उसकी बीन देखते ही कहा' अरे यह तो रत्नमंजूपा है । 'टपक पडील र यह तो बनता नहीं कि सूखे कपड़े लादे। कहा मल्लाहने । उसकी पत्नीने सूखी धोतीका दी--मल्लाहने उसे पहन लिया । अब वह रत्नमंजूषाकी ओर झुका । पत्नी हर्षातिरेकसे विह्वल बोली- 'भाग्य मराहो, रत्नोंका पिटारा मिला है !' मल्लाहने दहा-'इसमें कौनसा अचंभा, जब तुम लक्ष्मी मेरे सामने बैठी हो!'
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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