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________________ ANDURBUDI.BIDIOHDHUNIDMRUINDIRST HERODUR कार्तिकेय मांके पास बैठे उसकी अंतिम सेवा कर रहे थे । रानीने आंखें खोली । कार्तिकको देखकर वह मुस्करा दी, फिर पूछा-'लकड़हारिन बच गई ?' कार्तिकने उसकी रक्षाके शुभ समाचार सुनाये । रानीकी आंखोंमें मांसू छलछला आये । वह थोड़ी देर कार्तिकको एकटक निहारती रही । दूसरे क्षण उसने अस्पृष्ट स्वरमें कहा-'बेटा कार्तिक ! ले मैं चली। अ ..र....हं...त...." ___ चहुंओर अंधकार छागया। कुमार रोये नहीं ! वह बड़े गंभीर बन गये ! गांववाले उनकी पवित्रता देखकर हाथ जोड़कर नमस्कार करते और चले जाते । उनसे घुल २ कर बातें करनेकी उनकी हिम्मत न होती। हां, जहां रानीके शबकी दाइक्रिया हुई थी, वहा लोगोंने चबूतरा बना दिया था और उसपर नरनारी फूल चढ़ाना नहीं भूलते थे ! वेद मंत्रोंका पाठ उच्च स्वरसे होरहा था। मगणित ब्रह्मचारीगण आचार्य महाराजकी सेवा कर रहे थे। कुछ यसका सामान जुटा रहे थे। कुछ आचार्य महाराजसे पाठ रहे थे। इतनेमें एक तेजधारी युबकने आकर आचार्यका अभिवादन करके कहा-'महाबुभाव ! मुझे भी दीक्षा देकर शिष्य बनानेकी उदारता दिखाइये ।' ___आचार्यने कहा-'वत्स ! तुमने यह ठीक विचारा ! जरा बताओ तो तुमने किस वंशको अपने जन्मसे सौभाग्यशाली बनाया है।' उत्तरमें युवक बोला- महाराज ! मेरे पिताने अपनी ही कल्याने विवाह कर लिया था, उसीका कल मेरा बह करीर है।'
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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