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________________ HOURSUMARH UDIIIII. MitsumiDURRHOIRuu. B0RROHDIDIORDIDI ११२] पतितोद्धारक जैनधर्म। बेचारी क्या करती ! वह पतिके आधीन थी और पति भी उसका पिता और राजा था। इस दुख और अपमानपर परदा डालकर वह उन्हें हृदयमें छुपाये हुवे थी, किन्तु एक रोज इस भेदका उदघाटन अनायास होगया । राजमहलके आगे बहुतसे लड़के खेल रहे थे। सावनका महीना था, तीजोंका मेला अभी ही हुआ था, सब लड़के अपने २ खिलौने ला-लाकर दिखा रहे थे। एक लड़केने एक रेश. मकी कढ़ी हुई गेंद निकालकर दिखाई। सब लड़के देखकर खुश होगये। पकने पूछा-"भाई, यह कहासे लाये ?" दूसरेने बात काट कर कहा-"काये कहासे होगे ? इनके नानाने मेलेमें ले दी हे गी!'' जिसकी गेंद थी उस लड़के को अपनी नई गेंदका मोह था। वह डरा कि यह लोग छीनकर उसकी गेंद खो न दें। झटसे उसने गेदको अपनी जेबमें छिग लिपा और तब बोला-" हाँ, ले तो दी है मेरे नानाने इसीसे मैंने लुक ली ई, मै खेलंगा नहीं यह खोजायगी " सब कड़के एक स्वरसे बोरे - वाहजी ! वहीं खेलनेसे भी गेंद खोती है। लाओजी गेंद ग्वेलेंगे। और इसके साथ ही वे उसकी गेंद छीनने लगे। इतने में एक सौम्य और गंभीर लड़केके आनेसे छीना छप टीमें बाधा पड गई। नये लड़ने कहा- 'छोड़ो । उस बेचारेको । लो, इस गेंदसे खेलो।' गेंद पाकर लड़के बहुत खुश हुये, एक लड़के ने कहा-' यह गेंद उससे भी अच्छी है।' दुसरेने पूछा- क्यों कुंवरजी, यह गेंद तुम्हारे नानाजीने दी होगी ?'
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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