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________________ धर्मात्मा शुद्रा कन्यायें । [ १०५ -- और नगर ग्राम फिर कर प्राणियोंका हित साधने लगी । नीच ऊंच, रूप- कुरूपको अब वह नहीं देखती थी वह प्राणीमात्रका दुःख दूर करना जानती थी और सबको अपने समान आत्मा समझती थी । इसतरह उस नीच समझी जानेवाली काणाने खूब तप तपा। लोग अब उसके भक्त थे । आखिर समभावोंसे उसने शरीर छोड़ा और स्वर्ग में देवता हुई । वहांसे आकर श्रीकृष्णके पुज्य पूर्वज वासुदेचकी वह रानी हुई। देखा भाई ! यह है धर्मका प्रभाव ! शरीर और कुल जातिके मोहमें मत पड़ो । धर्मको देखो और उसका आदर करो।' भक्तने निर्ग्र० के मुखारविंदसे उपरोक्त कथा सुनकर अपनेको धन्य माना । सबने समझा कि धर्म पतित और उन्नत - सबके लिए समान हितकारी है । ' ( ३ ) कुरूप दिव्य क्षेत्र था और वहांकी दिव्य सामिग्री थी । शूद्रा कन्यायें मानो सोते जाग उठीं ! उन्होंने देखा, अब उनका वैसा और रोगी शरीर नहीं है - वह तो अपूर्व, दिव्य और प्रभावान् था। उनके आश्चर्यका ठिकाना न रहा । चकित होकर जो उन्होंने नेत्रोंको ऊपर उठाया तो ऐश्वर्य देखकर वे स्थंभित होगई ! उन्होंने और भी देखा कि उनका शरीर अब पुरुषोंका है- अनेक अप्सराएं उनका स्वागत कर रहीं हैं । अब उन्हें जरा होश आया । अपने दिव्य ज्ञानसे उन्होंने विचारा ! वे जान गई, यह उनका दूसरा जीवन है। कन्यायोंके शरीरका अन्त उन्होंने समाधि धारण करके किया और
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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