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________________ १०० ] पतितोद्धारक जैनधर्म - Manasparagushiindiandins "हां, पुत्रियो ! क्यों नहीं तुम भी सुख पानेकी अधिकारिणी हो ? तुम तो मनुष्य हो - पशु-पक्षी भी सुखी होसते हैं।' कन्यायें - 'पशु पक्षी भी ?' निर्ग्र० – 'हां, पशुपक्षी भी । उनके भी आत्मा है और सुख प्रत्येक आत्माका अपना निजी गुण है । अब भला कहो, उस अपने उपभोग कौन नहीं कर सक्ता ? गुणका 9 कन्यायें - तो नाथ ! हमें सुख कैसे मिले ? ' निग्रे० ' सुख आकुलताके दूर होने से मिलता है और आकुळता धर्म कर्म करनेसे मिटती है । इसलिए यदि तुम सुख चाहती हो तो धर्मकी आराधना करो ! शूद्रा०- भगवन् ! हम धर्म कैसे पालें ?? निर्ग्र० - ' देखो, जैसा अन्न खाया जाता है वैसा ही मन होता है और मनके पवित्र होनेपर इष्ट मनोरथ सिद्ध होते है । इसलिये पहले तुम शुद्ध भोजन करनेका नियम हो । जिस भोजन के पानेमें हिसा होती हो और जो बुद्धिको विकृत बनाता हो, उसे मत ग्रहण करो । मधु, मांस, मदिरा - ऐसे पदार्थ हैं जो मानव शरीर के लिये हानिकर है, तुम उन्हें मत खाओ और देखो, हमेशा पानी छानकर साफ - सुथरा पियो !" शूदः ०–' नाथ, यह हम करेंगी । सादा और शुद्ध हमारा अशन-पान होगा ।' निर्ग्र० - धन्य हो पुत्रियो ! अब देखो, जैसे तुम सुख चाहती हो वैसे ही प्रत्येक प्राणी सुखी होना चाहता है । अतः तुम भरसक
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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