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________________ ९२ ... RANDusunuou .tamanimun01.00 .0IOnli. 10 H OUDiliun. पतितोद्धारक जैनधर्म । (२) सोमदत्तने हजारों-लाखों पौधोंको लगाया, बढ़ाया और सेवारा था। उसके हाथके लगे हुए सैकडों पेंड अपने सौन्दर्यसे लोगोंका मन मोहते थे; परन्तु यंत्र-विद्यामें वह अपनेकी कुशल सिद्ध न कर सका । कई दिन बीत गये परन्तु लाख सिर धुनने पर भी वह विमानका ढांचा भी न डाल सका । अपनी इस असमर्थता पर बेचारा हैरान था तो भी वह हताश न हुआ। उस दिन सोमदत्त विमान-विद्या साध रहा था। राजगृहका नामी चोर अंजन उघरमे आ निकला। उसने सोमदत्तसे मारा वृत्तांत पूछा और उसकी कठिनाई जानकर उसने कहा-" भाई, घबड़ाओ मत, मुझे जरा यह विद्या बताओ। मैं इसे अभी साधे देता हूं। सोमदत्तने कहा- भाई, मैं तुम्हें इस विद्याकी विधि एक शर्त पर बता सकता हूं और वह यह कि तुम मुझे विमानमें बैठा कर सारे तीर्थोकी यात्रा करा दो।' अंजन बोला- अरे, इसके कहनेकी क्या जरूरत थी। विमान बन जाय तो एकबार क्या अनेकबार आपको तीर्थयात्रा करा दूंगा। सोमदत्त यह सुनकर प्रसन्न हुआ और उसने चोरको विद्या साधने की विधि बतला दी । चोर निशक और दृढ पुरुषार्थी था । यह विमान बनानेमें बेसुध हो जुट गया और उसने उसे बना भी लिया; किन्तु उसमें बैठकर आकाशमें उड़ना भी कोई सरल काम
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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